कविता

हर रंग हुआ बदरंग

हर रंग हुआ बदरंग धरा पर ,
        विपदा है ऐसी छाई
सावन की घटा हरियाली भी
इस मन को बिल्कुल ना भाई
नहीं कजरी गूँजी गाँवों में
ना लगे महावर पाँवों में
हर दिल में तड़प है अब बाकी
हैं जख्म हरे हर घावों में
झूलों को तरसी हर डाली
अब नीर बहाए हर भाई
हर रंग हुआ बदरंग धरा पर
विपदा है ऐसी छाई
हर मानव बेबस व्याकुल है
इस दुःख का कोई छोर नहीं
फिर से दिखलाया कुदरत ने
उसपर है किसी का जोर नहीं
कैसे उल्लासित तनमन हो
जब भूखे हों सब बहन भाई
हर रंग हुआ बदरंग धरा पर
विपदा है ऐसी छाई
सूनी सूनी सी बदली है
सूनी सूनी ये हवाएँ हैं
अंबर भी रोता हाल देख
बेचैन हुई ये हवाएँ हैं
बदहाल लोग हैं त्रस्त बड़े
बीते सावन की याद आई
हर रंग हुआ बदरंग धरा पर
विपदा है ऐसी छाई
हुई चमक है फीकी सूरज की
चंदा भी अब बे नूर है
क्या होगा इस दुनिया का अब
हल अभी बहुत ही दूर है
सर्दी खाँसी भी खास बनीं
जां लेती है कोरोना माई
हर रंग हुआ बदरंग धरा पर
विपदा है ऐसी छाई
हर घर है कारागार बना
हर घरवाला अब कैदी है
मानव की क्या औकात आज
  खुद कुदरत भी ये कहती है
नभमंडल समझो पितातुल्य
और समझो धरती माई है
हर रंग हुआ बदरंग धरा पर
विपदा है ऐसी छाई

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।