धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आध्यात्मिक संचरण व जागतिक जागरण! 

अध्यात्म की कई अवस्थाएँ हैं। शारीरिक व मानसिक स्तर पर अनेक प्रस्फुरण हैं। कुछ अवस्थाओं में कोई व्यक्ति अच्छा समाज सुधारक व राजनीतिज्ञ व राजनेता भी हो सकता है। हर किसी के अपने अपने भाव, संस्कार व उद्देश्य हैं और देश काल पात्र की आवश्यकतानुसार हर कोई वश परवश, जाने अनजाने सृष्टि सेवामें संलिप्त है।
शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक अवस्थाओं में परस्पर ताल मेल, साम्य, सौम्य व प्रमा होना आवश्यक है।आध्यात्मिक जाग्रति के साथ शारीरिक व मानसिक शक्ति सामर्थ्य और अधिक आजाती है। स्वास्थ्य, बल, बुद्धि व बोधि पा कर हम अधिक व और अच्छी समाज सेवा कर सकते हैं।
किसी भी शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्ति व सामर्थ्य का दुरुपयोग करना उचित नहीं। जैसे ही हमदुरुपयोग करेंगे प्रकृति हमें रोकेगी, सृष्टि के जीव जड़ अपनी भरपूर ताक़त लगा हमारा मार्ग अवरुद्ध करेंगे औरआवश्यकता हुई तो हमें वे या परम प्रशासक परिवर्तित या नेस्तनाबूद कर देंगे।
सब कोई सृष्टि में योगदान कर रहे हैं। जो कोई जो कर सकते हैं अवश्य करें। हर कर्म करके कुछ ज्ञान, अनुभवव अनुभूति होती है। बस उसकी मात्रा व गुणवत्ता बढ़ाते चलना है।
सब अपना दायित्व निभा रहे हैं। सब ठीक हैं। जो ठीक नहीं लग रहे, उन्हें कोई ठीक करने वाले आ जाते हैं।सब कुछ सुप्रबंधित, संरक्षित व सुरक्षित है।
हमें श्रेय की ओर उन्मुख होना है; प्रेय के आकर्षण में नहीं फँसना है! मन को उठाना है, सृष्टा के साथ उद्देश्योंका समावेश करना है।
हर चराचर की प्रमा भूमा प्रमा में समाविष्ट होनी है। यदि ऐसा नहीं होगा तो द्वन्द होगा और जो वलशाली, गुणवान व सही होगा वह विजय को वर पाएगा व ठहर पाएगा। हर तन्तु, जन्तु , मनुज व महा मानव में यहप्राकृत क्रीड़ा चलती रहती है।
उर में सृष्टा हुए सृष्टि की हर लहर को देखना है और जहाँ ज़रूरत हो उसे थोड़ा सहारा, सम्बल, सहानुभूति वसंस्पर्श दिए सुस्मित भाव से चलते रहना है! सब स्वायत्त, समन्वित, परस्पर समाहित व सुप्रबंधित है।
अध्यात्म की परम व चरम अवस्था में हम सृष्टि में ‘सद्विप्र’ का कार्य कर सकते हैं। तब हम सृष्टि के हर पर्ण, हर वर्ण, हर मर्म, हर धर्म, हर राजनीति, हर समाज व हर प्राण को प्रेरणा दे उत्प्रेरित कर आगे बढ़ाते चलते हैं!
आपके उर में बोधि द्वारा जो आज्ञा, उत्कंठा व प्रस्फुरण मिले उसके अनुसार चलते रहिए! बुद्धि को मालिक न बनने दीजिए, उसे बोधि का सेवक बना लीजिए, तो मार्ग स्वच्छ, स्वायत्त, सहज, आसान व निर्विघ्न होजाएगा!
हमें यह भी नहीं सोचना है कि हम ही सब कुछ हैं, हम ही समाज या सृष्टि सुधारक हैं और दूसरों को हमें उपदेशदेते रहना है। असलियत में हमें केवल अपना योग दान देना है; औरों को अपना योग दान स्वच्छंद देने देना है।‘अहं’ भाव के बजाय ‘महत’ भाव में प्रतिष्ठित होना है। जड़ता व स्वार्थ को हटा व मिटा सरसता, सौजन्यता वसमरसता बढ़ानी है।
जब हम बुद्धि व स्वार्थ से परे बोधि के विवेक से सार्वभौमिक बात करेंगे तो सब हमारी बात सुनेंगे। तब हमयद्यपि हर व्यक्ति, समाज, देश या ग्रह की बात या सेवा करेंगे पर हमारी दृष्टि भूमा होगी। तब हम द्वैत भाव सेपरे होंगे।
तब हम बुराई नहीं कर पाएँगे, सेवा या राजनीति में स्वार्थ भाव से नहीं सोच पाएँगे, उपदेश देने की आवश्यकतानहीं पड़ेगी और न अपने को कुछ महान समझेंगे! तभी सही सेवा व राजनीति हो पाएगी! तब बातें नहीं होंगी, ठोस कर्म होंगे। प्रचार प्रसार सहज हो जाएगा। बुद्धि लगाने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
उस अवस्था में शोषण, मिथ्याचार, भ्रष्टाचार, प्रदूषण, परछिद्रान्वेषण, प्रतिद्वंदता, प्रतिस्पर्धा व वैमनस्य स्वत: समाप्त हो जाएगा! तब केवल कर्म होंगे, मर्म होंगे व धर्म स्वाभाविक रूप से बहेगा!
तब मानव मन मुक्त हो कर्म कर सकेगा। उसके जो मूल गुण हैं वे ही धर्म का धारण करेंगे। भेद भाव, जाति वर्णभेद, मज़हबों की हवाएँ, देशों की दीवारें, युद्धों के विचार, भाषाओं की भिन्नताएँ, विचारों की विविधताएँ, इत्यादि तब कोई बाधा नहीं दे पाएँगे और तब वे अनूठे अवसर, उपयोगिता व समरसता देने में सहायक सिद्धहोंगे व अप्रतिम भूमिका प्रदान करेंगे।
यह सब किन्हीं को मृगतृष्णा सरिस लग सकता है पर जिनके मन व आत्म उत्तिष्ट हैं उन्हें यह शीघ्र होता हुआदिखाई पड़ेगा! उनका समय इस सबके आयोजन प्रयोजन में ही लगा हुआ है।
पृथ्वी पर बहुत बड़ी संख्या में अनेक ऐसे सुजन हैं जो इस कार्य में लगे हुए हैं । उनकी संख्या त्वरित गति से बढ़रही है। हम विश्व में जो बहु आयामी अप्रत्याशित परिवर्तन प्रति दिन देख रहे हैं वह उसी चैतन्यता की झलक, ललक व लहर है!
नव्य मानवता का अनवरत अवतरण प्रति पल हो रहा है! हमें केवल उसका साक्षी व सहायक होना है; उर कीसुन कर्म करते हुए समाहित समर्पित होना है!
✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’