कविता

बँटवारा

आज़ादी का हाथ थाम कर
आया बटँवारा इस देश में।
तहस नहस कर दिया सबकुछ
जिसनें पूरे देश में।
मज़हब के नाम पर काटने लगा
अचानक इंसान ही इंसान को।
क्योंकि बट चुका था यह देश
उसी के नाम पर
हिंदू ,मुस्लिम, सिख, ईसाई
जो पहले थे जिगरी भाई ।
पर अब चुके थे सब कसाई ।
क्या मंज़र रहा होगा उस शाम का
जब लोग घोट रहे होंगे गला
अपनी ही संतान का।
लोग भाग रहे होंगे इधर उधर
अपनी जान बचाने को।
और कुचल रहे होंगे शायद
अपनोँ की लाशों को।
ज़ख्म भरे नहीं है अब तक
उस दर्दनाक शाम के
जब बट गया था यह देश
एक ही दिन और रात में।
जब उजड़ गए होंगे लोग
अपने ही जहान से।
जब बिछड़ गए होंगे लोग
अपने ही परिवार से।
नहीं यकीन हो तो मेरा
पूँछ लो किसी भी इंसान से
कि क्या हुआ था उस दिन
जब बट गया था यह देश
एक ही दिन और रात में।

– श्रीयांश गुप्ता

श्रीयांश गुप्ता

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