धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

संसार में ईश्वर एक ही है और वह सबसे महान और महानतम है

हमारा यह संसार मनुष्यों वा जीवात्माओं के सुख के लिये बनाया गया है। बनाने वाली सत्ता को हम ईश्वर के नाम से जानते हैं। ईश्वर ने इस संसार को बनाया भी है और वही इसको व्यवस्थित रूप से चला भी रहा है। सूर्य समय पर उदय होता है। सूर्य अपनी धूरी पर घूमता है और अपनी चारों ओर ग्रहों उपग्रहों को अपनी परिक्रमा कराता है। संसार में समय पर ऋतु परिवर्तन होता है। मनुष्य जन्म लेते, सुख दुःखों का भोग करते हुए ससार से विदा होते है तथा मृतक आत्मायें पुनः संसार में जन्म लेती हैं। आत्मा अनादि, नित्य एवं अमर हैं। जन्म व मृत्यु आत्मा का गुण व स्वभाव है। जन्म का कारण आत्मा के जन्म-जन्मान्तरों वह कर्म होते हैं जिनका फल उसे भोगना होता है। कर्म के दो मुख्य भेद पाप व पुण्य होते हैं। पाप कर्मों का फल दुःख होता है तथा पुण्य कर्मों का फल सुख व आनन्द होता है। मनुष्य का उद्देश्य एक ओर जहां अपने पाप-पुण्य कर्मों का भोग करना है वहीं उसे अपने भविष्य के लिये नये शुभ व दुःखों को दूर करने वाले कर्मों को भी करना होता है। हमारे वेद आदि शास्त्र हमें सुखी व आनन्द से युक्त जीवन व्यतीत करने सहित जन्म व मरण में होने वाले दुःखों से मुक्त कराने के लिये हमें मुमुक्ष बनने की प्रेरणा करते हैं। मुमुक्षु मनुष्य को यद्यपि जीवन में सत्य के मार्ग पर चलना होता है परन्तु तप व व्रत पालन से उसे परिणाम में निश्चय ही इच्छित सुख व आनन्द की प्राप्ति होती है। इसी लिये मनुष्य उत्साह में भरकर अपने वेदविहित कर्तव्यों का पालन करते हुए देश व समाज के हित में अपनी सेवायें अर्पित करते हैं। हमारे देश के महापुरुष ऋषि, मुनि, साधु, सन्तों सहित हमारे प्रातःस्मरणीय महापुरुष श्री राम, श्री कृष्ण तथा ऋषि दयानन्द हमारे आदर्श हैं। इनके जीवन चरितों जो हमें रामायण, महाभारत, दयानन्द-प्रकाश आदि के माध्यम से उपलब्ध होते हैं, उनका अध्ययन कर हमें इन महापुरुषों जैसा महान बनने व कर्तव्य एवं धर्म पालन करने की प्रेरणा मिलती है। ऐसा करके हम अपने जीवन के लक्ष्य के निकट व निकटतर होते जाते हैं और ईश्वर की व्यवस्था से हमें अपने प्रयत्नों के अनुरूप अभीष्ट सुखों व कल्याण की प्राप्ति होती जाती है।

संसार में ईश्वर की सत्ता एक ही है। उसके समान उससे अधिक किसी दूसरी सत्ता के होने का प्रश्न ही नहीं है। उसी सत्ता से यह संसार अस्तित्व में आया है। ईश्वर ने इस संसार की उत्पत्ति अपनी अनादि चेतन अल्पज्ञ प्रजा जीवात्माओं के लिए की है। अपनी सन्तानों को सुख पहुंचना प्रत्येक माता, पिता आचार्य का कर्तव्य होता है। ईश्वर ने भी माता, पिता तथा आचार्य के समान अपने कर्तव्यों को इस सृष्टि की रचना करके निभाया है। बहुत ही सहज रूप से ईश्वर इस सृष्टि का संचालन कर रहा है। ईश्वर के सभी कार्यों में हम श्रेष्ठता एवं उत्तमता के दर्शन करते हैं। उसका बनाया, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी तथा पृथिवीस्थ पदार्थ अग्नि, जल, वायु एवं आकाश सभी उत्तम हैं। ईश्वर ने मनुष्य नाना प्राणी, वृक्ष, वनस्पति, ओषधियां, फल, फूल, जलचर, थलचर तथा नभचर आदि जो प्राणी व पदार्थ बनाये हैं तथा पृथिवी पर जो समुद्र, पर्वत, रेगिस्तान तथा नदियां आदि बहाईं हैं वह सभी उत्तम रूपों व गुणों से युक्त हैं। इनसे मनुष्य जाति व संसार को होने वाले लाभों का विचार करते हैं तो विवेकी मनुष्यों का सिर ईश्वर के चरणों में झुक जाता है। ईश्वर सचमुच महान एवं अविद्वीय है। उसके समान संसार में हमारा मित्र व सखा दूसरा नहीं है। वह हमें प्रत्येक क्षण उपलब्ध रहता है। हम जब चाहें उसकी भक्ति व उपासना कर सकते हैं। वह हमारे सभी कर्मों को देखता तथा हमारी प्रार्थनों को सुनता ही नहीं अपितु हमारे मन में उठने वाली एक एक बात व विचार को भी जानता है। हम जब दुःख में होते हैं तो असली सान्त्वना ईश्वर ही देता है और कुछ समय बाद ही हम हमनें छोटे व बड़े सभी दुःखों से उबर जाते हैं। ईश्वर के सभी मनुष्यों व जीवों पर अनादि काल से अनन्त उपकार हैं। ईश्वर ने हमसे अपने उपकारों के लिये कभी कुछ मांगा नहीं है। हम स्वयं विचार करते हैं कि हमारे पास ईश्वर को देने के लिये कुछ नहीं है। हमारे पास जो भी पदार्थ है वह सब ईश्वर के ही दिये हुए हैं। हमारे पास यदि अपना कुछ है तो वह हमारी आत्मा ही है। अतः आत्मा को ईश्वर की आज्ञा पालन में समर्पित करके ही हम ईश्वर के सच्चे पुत्र, शिष्य या भक्त बनते हैं। हमने सभी महापुरुषों यथा राम, कृष्ण व दयानन्द जी आदि के जीवन में यही देखा कि वह ईश्वर की आज्ञा पालन में नतपस्तक रहे। उन्होंने मानवजाति के उपकार के लिये अपना पूरा जीवन लगाया। अपने लिये उन्होंने कभी कोई अनुचित कार्य नहीं किया। अपने देश, समाज, वैदिक धर्म व संस्कृति के उन्नयन व प्रचार के लिये ही वह अपने जीवन भर प्रयत्नशील रहे और यही सन्देश हमें देकर गये हैं कि हमें भी वेद व ऋषि मुनियों के प्रति सदा उनका अनुगामी एवं समर्पित रहना है। हमें वही काम करने हैं जो हमारे आदर्श पूर्वज राम, कृष्ण व दयानन्द जी आदि करते रहे हैं। आज संसार जिस स्थिति में है, उन सब समस्याओं को दूर करने के लिये सबको मिलकर वेद प्रतिपादित ईश्वर की शरण में आकर और वेदानुकूल पुरुषार्थ कर अपना व विश्व का कल्याण करना है। यही सत्य मार्ग है जिस पर चलकर मनुष्य का अभ्युदय होने सहित विश्व का कल्याण होकर मनुष्यों को निःश्रेयस का सुख प्राप्त हो सकता है।

ऋषि दयानन्द ने हमें ईश्वर के सत्य स्वरूप का परिचय कराया है। आर्यसमाज के नियमों में उन्होंने ईश्वर के सत्यस्वरूप का अति संक्षिप्त चित्रण भी किया है। उन्होंने बताया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर हमारे कर्मों का फल प्रदाता है। वह सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान देता है जिससे सभी मनुष्य सृष्टि का कल्याण होता है। ईश्वर ही हमें वृद्धावस्था में होने वाले दुःखों से मृत्यु प्रदान कर छुड़ाता है और फिर हमारे कर्मानुसार नये माता, पिता, भाई, बन्धु, मित्र, सखा, आचार्य प्रियजन सुलभ कराता है। हम वृद्धहोने के बाद पुनः शिशु, किशोर, युवा, प्रौढ़ आदि बनते हैं। यह सब ईश्वर की ही कृपा है। हमें अपनी आत्मा का स्वरूप भी विदित होना चाहिये। हमारी आत्मा सत्य व चित्त है। यह एकदेशी, ससीम, सूक्ष्म, आंखों से अदृश्य, अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा, मुक्ति को प्राप्त होकर सभी दुःखों से मुक्त होने वाली, वेदाध्ययन और योगाभ्यास कर ईश्वर व सृष्टि के सभी रहस्यों को जानने वाली है। हमें वेदाध्ययन कर अपनी आत्मा को पूर्ण विकसित करने का प्रयास करना चाहिये। हमें वैदिक धर्म के सभी महापुरुषों से प्रेरणा लेनी चाहिये। ऐसा करना ही कल्याण का व श्रेय का मार्ग है। हमारे प्राचीन सभी पूर्वज इसी श्रेय मार्ग पर चले थे और मुक्ति को प्राप्त हुए थे। उनके वंशज होने के कारण हमें उन जैसा ही बनना चाहिये। हमें पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति की नकल न कर वेद एवं ऋषियों से ही प्रेरणा लेनी चाहिये। इसी से हमारा वर्तमान एवं भविष्य तथा परजन्म का जीवन भी उत्तम बनेगा तथा संवरेगा। हम इस ब्रह्माण्ड की श्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम सत्ता जो हमारा पिता, माता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है, उसको नमन करते हैं। ईश्वर कृपा कर हमारी बुद्धियों को श्रेष्ठ मार्ग पर चलायें और हम श्रेष्ठ आचरणों से युक्त हों। ओ३म् शम्

मनमोहन कुमार आर्य