लघुकथा

प्रतिकार

अमिता,अपनी सफलता पर फूली नहीं समा रही थी।आज उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।उसे अपनी इस कामयाबी पर पहले तो यकीन ही नहीं हुआ था।पर सामने पड़े लिफाफे ने उसे पूरी तरह यकीन दिला दिया था कि उसने एक बड़ी कंपनी में नौकरी पा ली हैं।पति ने उसकी सफलता पर उसे बधाई दी।वह खुशी से पागल हुआ जा रहा था।
पर उसे पति की परवाह नहीं थी।वह इसी इंतजार में था कि उसकी पत्नी उसे अभी सीने से लगा लेगी।
अमिता फोन पर अपने परिवार से हँस-हँस के बातें कर रही थी।वह अपनी खुशी में इतनी खो गई कि उसने अपने पति को सिरे से नकार दिया।वह कंपनी की ओर से मिले घर में चली गई।उसने पति का खूब अपमान किया।तुम मेरे लायक नहीं हो, मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती।मैंने पहले ही तुमसे शादी करके बहुत बड़ी गलती की थीं।बस अब मैं तुम्हें और नहीं सह सकती।तुम जाहिल हो,जिंदगी में कभी सफल नहीं हो सकते।पत्नी के इस व्यवहार से सुमेश बहुत टूट चुका था।
वह अमिता,को याद करके अतीत में खो जाता।उसने अपनी छोटी सी दुकान गिरवी रख दी थी,उसके सपने साकार करने के लिए।वह उसकी हर जरूरत पूरी करता।पर आज वह सब कुछ हार चुका था।वह कई दिनों तक चुपचाप पड़ा आँसू बहाता रहा।उसने अपना सब कुछ खो दिया था।पत्नी द्वारा किया गया अपमान सह पाना मुश्किल हो रहा था।सभी पड़ोसी उसी का दोष निकल रहे थे कि पहले तो पत्नी को सिर पर चढ़ा लिया,अब आँसू बहा रहा है।
उसके पास अब एक ही रास्ता था।तरक्की करना।उसने अपना छोटा सा व्यापार शुरू कर दिया।रात-दिन वह अपने काम में खोया रहता।दस साल कैसे निकल गए,उसे पता ही नहीं चला?आज शहर के हर छोटे-बड़े आदमी की जुबान पर उसका ही नाम था।वह कई बड़ी कम्पनियों का मालिक था।
अमिता,उसके पास लौटना चाहती थी।उसे अपनी भूल का अहसास था।पर अब बहुत देर हो चुकी थी।सुमेश ने उसे इतना ही कहा,”ये तुम्हारे ही प्रतिकार का उत्तर हैं।”

राकेश कुमार तगाला

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