कविता

चाहत-ए-हरियाली

शहरों में जीने की ठान ली मैंने
हां, गमलों में हरियाली पाल ली मैंने,
गमले में बलखाती लता गिलोय की
गमले में इठलाती कली अनार की….
गमले में पुदीना और बेल पान की
तुलसी का पौधा संग छोटा सा देवस्थान भी….

कहीं गुलाब की सुगंध, कहीं खिलती अश्वगंध
कहीं कद्दू करेला तो कहीं फूलों का रेला
समझौते की राह जीवन में मान ली मैंने
सामंजस्य की तरकीब जान ली मैंने
याद आता है जब भी अपना घर बगीचा
निकल पड़ती हूं सैर-ए पहाड़ की ओर….

पल दो पल का सुकून पाकर वहां
लौट आती हूं वापस नेह का वादा किये
साथ चलती है मेरे ढ़ेर सारी यादें
कुछ अनकही फरियादें
इन्हीं यादों में जीने का संबल ढूंढ लेती हूं
याद आए जो घर की तो मैं एल्बम खोल लेती हूं।

— अमृता पांडे

 

 

अमृता पान्डे

मैं हल्द्वानी, नैनीताल ,उत्तराखंड की निवासी हूं। 20 वर्षों तक शिक्षण कार्य करने के उपरांत अब लेखन कार्य कर रही हूं।