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गणेशोत्सव विशेष : शिव-पार्वती के विवाह में पुत्र गणपति का पूजन

प्रत्येक मांगलिक कार्यों से पहले श्री गणेश जी का स्मरण एवं वंदन जरूर किया जाता हैं।विभिन्न मनोकामनाओं से भक्तगण इनका व्रत-पूजन करते हैं।जो शीघ्र ही पूर्ण हो जाता हैं। भाद्रपद (भादो) माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को गणेश जी ने अवतार लिया था।और इसी कारण से भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष के चतुर्थी तिथि से चतुर्दशी तिथि तक (दस दिनों तक) धूम-धाम से गणेशोत्सव मनाया जाता हैं।मुम्बई (महाराष्ट्र) के लिए यह उत्सव खास मायने रखता हैं।सभी लोग झूम उठते हैं।हालांकि इस वर्ष कोरोना काल में यह उत्सव पड़ा हैं।इस कारण बहुत सारी बातों का ध्यान रखते हुए इस उत्सव को मनाया जा रहा हैं।समस्त विद्याओं में निपुण श्री गणेश जी के वाहन मूषक का नाम डिंक हैं।लम्बोदर, गजानन अनेक नामों के धारण करने वाले विघ्नविनाशक की महिमा अपरंपार हैं।
गणेश जी भगवान शिव एवं माता पार्वती के सुपुत्र हैं।पर हैरान करने वाली बात तो यह हैं कि भगवान शिव एवं माता पार्वती के विवाह में श्री गणेश जी का पूजन हुआ था।यह प्रश्न स्वाभाविक हैं की विवाह के उपरांत ही पुत्र का जन्म होता हैं।पर माता-पिता के विवाह में पुत्र का पूजन कैसे? इसको जानने से पहले श्री गणेश जी का जन्म एवं जीवन।शिवपुराण के अनुसार माता पार्वती को एक विश्वसनीय पुत्र की
इच्छा थी जो उनका पूरा ख्याल रख सके।उनकी समस्त आज्ञा पल भर में मान सके।इस प्रकार माता पार्वती, स्नान से पूर्व अपने शरीर पर हल्दी का उबटन लगायी थीं।उन्होंने उस हल्दी को छुड़ाने के क्रम में एक पुतला बना दिया।उस सुंदर बने पुतले में प्राण डाल दिया।इस प्रकार श्री गणेश जी का अवतरण हुआ।अवतरण के पश्चात माता ने कहा- हे पुत्र!मैं स्नान करने जा रही।तुम द्वार पर बैठो एवं किसी को अंदर जाने के अनुमति मत देना।कुछ ही समय में भगवान शिव वहां आये, अंदर जाने की
 इच्छा बतायी पर गणेश जी ने उन्हें रोक दिया।ब्रह्माजी,विष्णु जी,नंदीश्वर,भगवान शिव के सभी गण, इन्द्रादि सहित समस्त देवता ने समझाया पर गणेश जी अपनी माता के आज्ञा पर अटल रहें।इस पर शिवजी को क्रोध आया एवं गणेश जी का मस्तक त्रिशुल से काट दिये।जब माता पार्वती बाहर आयीं यह सब देख क्रोधित हो गयी।वह संसार को नाश करने वाली थी तभी समस्त देवताओं ने बार-बार स्तुति प्रार्थन की कि हे माता!आप जगतजननी हैं, आप जगत माता हैं।रक्षा करें।समस्त देवों ने शिवजी के आज्ञा से प्रयत्न कर एक हथिनी के बच्चे  का मस्तक लाकर पुनः गणपति को नया जीवन प्रदान किया।तब वे गजानन से प्रसिद्ध हुए।अग्र पूजा में गणेश जी के साथ माता गौरी का भी पूजन किया जाता हैं।
   ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक बार शिव जी से मिलने परशुराम जी कैलाश पहुँचे।शिवजी की इच्छा थी कि उस वक्त वे किसी से नही मिलेंगे।गणेश जी ने पिता के आज्ञानुसार परशुराम जी को, शिव जी के पास जाने से रोक दिया।तभी परशुराम जी क्रोधित हो उठे।उनदोनो में काफी बहस हुई और अंततः दोनों में घमासान युद्ध हुआ।परशुराम जी ने गणेश जी पर अपने परसु से वार कर दिए।गणेश जी हर अस्त्र को रोकने में दक्ष थे।यहां तक कि वे परशु को भी रोक लेते पर वो परशु शिव जी ने ही परशुराम जी को आशीर्वाद स्वरूप दिया था।पिता का अनादर न हो इसलिए उन्होंने उस परशु को अपने दांत पर रोक लिया।जिससे उनका दांत टूट गया। उन्होंने माता को जोर से आवाज लगाया।तभी पार्वती जी आ गयीं।  दांत को टूटे देख कर क्रोध में  पार्वती जी ने दुर्गा रूप धारण कर ली।परशुराम जी डर गए।अपनी गलती मानकर क्षमा याचना करने लगें।तभी गणेश जी ने माता को शांत किया। परशुराम जी गणेश जी के इस भाव से प्रभावित हुए उन्होंने कहा यह दांत व्यर्थ नहीं जाएगा।भविष्य में इसी खंडित दांत से महाभारत लिखी जाएगी एवं ऐसा हुआ भी।एक दांत खंडित होने से ही उनका नाम एकदंत पड़ा।
एक बार समस्त देवताओं में इस बात की होड़ लगी कि प्रथम पूजन किसका हो?सभी इस बात पर अड़े थे कि मुझसे श्रेष्ठ और कोइ नहीं इसलिए मेरा पूजन पहले हो।यह प्रश्न शिव जी के पास गया।शिवजी ने समस्या को समझा एवं आदेश दिया जो इस ब्रहाण्ड का सबसे पहले परिक्रमा करके लौटेगा वह प्रथम पूज्य होगा।सभी लोग अपने वाहन लेकर निकल पड़े।कार्तिकेय जी दृढ़ विश्वास के साथ अपने वाहन मयूर पर सवार हो निकले की सबसे तेज वाहन मेरा हैं।कार्तिकेय जी सोचने लगे गणेश का सवारी मूषक हैं वो क्या पहले परिक्रमा करेगा।जब कार्तिकेय एवं अन्य देव वापस लौटे तो आश्चर्य में पड़ गए गणेश जी वहां पहले से ही विद्यमान थे।गणेश जी अपने विवेक से शास्त्रानुसार माता-पिता की सात परिक्रमा कर ली।उन्होंने कहां माता-पिता तो समस्त ब्रह्मांड हैं फिर मुझे और कही क्यो जाना।मैने इनकी सात परिक्रमा की हैं।इस प्रकार अपनी कुशाग्रता से वे गणाधिपति प्रथम पूज्य बनें।
 गणेश जी के विवाह के लिए सभी देवगण शिवजी के पास पहुंचे।इस समाधान हेतु शिवजी ने सभी देवगणों को ब्रह्मा जी के पास भेंजा।ब्रह्मा जी अपने दो मानस पुत्रियों ऋद्धि एवं सिद्धि को लेकर गणेश जी के पास आये।ब्रह्मा जी ने गणेश जी से शिक्षा देने का आग्रह किया, जिसे गणेश जी ने स्वीकार किया। शिक्षा पूर्ण होने पर ब्रह्मा जी ने गणेश जी से निवेदन किया की हे गणेश जी!इनके योग्य वर समस्त संसार में कहीं नहीं मिल पा रहा हैं।आपके जैसा सर्वगुणसम्पन्न वर कहा मिल सकता हैं, इसलिए प्रभु कृपा करके आप इनसे विवाह करें।गणेश जी ने यह नात स्वीकार ली। इस तरह ऋद्धि (बुद्धि एवं विवेक की देवी) एवं सिद्धि (सफलता की देवी) से गणेश जी का विवाह हो गया। गणेश जी के दो पुत्र हैं शुभ एवं लाभ।
अब प्रश्न यह कि शिव जी के विवाह में गणेश जी का पूजन कैसे?सत्य तो यह हैं कि भगवान श्री गणेश जी का कभी अंत नहीं हैं।वे नश्वर,अनादि व अनंत हैं।गणेशजी, महागणपति के एक अवतार हैं।जिस प्रकार श्रीहरि विष्णु के कृष्ण,राम,परशुराम आदि कई अवतार हैं ठीक उसी प्रकार गणेश जी भी महागणपति के अवतार हैं।सर्वप्राचीन वेद ऋग्वेद में इनका नाम गणपति प्राप्त होता हैं।यजुर्वेद में भी इनका नाम मिलता हैं।इस प्रकार जिनका कभी अंत नही होता उन महागणपति का पूजन शिव-पार्वतीजी के विवाह में सर्प्रथम हुआ।
गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं:-
 मुनि अनुशासन गनपति हि पूजेहु शंभु भवानि।
कोउ सुनि संशय करै जनि सुर अनादि जिय जानि।
अर्थात विवाह के समय ब्रह्मवेत्ता मुनियों के निर्देश पर शिवजी एवं माता पार्वती ने गणपति की पूजा संपन्न की।कोई व्यक्ति संशय न करें, क्योंकि देवता (गणपति) अनादि होते हैं।
महागणाधिपति ने अनेक रूपों में देव-ऋषिगण एवं सत्य की रक्षा हेतु अनेक दैत्यों का संहार किया हैं। उन्होंने वक्रतुंड रूप धारण कर मत्सरासुर के पुत्रों का नाश किया एवं मत्सरासुर को पराजित किया।बाद में मत्सरासुर गणेश जी का भक्त हो गया।गजानन रूप में लोभासुर को बिना युद्ध पराजित किया।मदासुर का संहार करने हेतु उन्होंने एकदन्त रूप धारण किया।मोहासुर का वध करने हेतु महोदर अवतार लिए।धूम्रवर्ण अवतार लेकर अहंतासुर को सबक सिखाये।विकट रूप धारण कर कामासुर को पराजित किए।बाद में उन्होंने कामासुर को अभय वरदान दिया।इस अवतार में इनका वाहन मयूर था।लम्बोदर रूप धारण कर क्रोधासुर का संहार किये।ममासुर दैत्य के नाश हेतु विघ्नराज रूप धारण किये।एक बार माता लक्ष्मी जी पार्वतीजी से मिलने कैलाश गयी।उन्होंने गणेश जी को देखा ऐसे सुधर,आज्ञाकारी,सर्वगुणसम्पन्न पुत्र देख कर उनके मन में भी ऐसे पुत्र की इच्छा हुई।लक्ष्मी जी ने गणेश जी से प्रार्थना की।गणेश जी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की।आज भी दीपावली के दिन लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी का पूजन किया जाता हैं।श्री गणेश जी की कथा एवं महिमा कल्प-कल्प के अनुसार अन्य-अन्य प्राप्त होती हैं।गणेश जी का विधि-विधान से ध्यान एवं पूजन करने से किसी भी प्रकार की मनोकामना पूर्ण होना शेष नहीं रहता।गणेश जी की कृपा से साधक सुख,समृद्धि,ऋद्धि, सिद्धि,यश,वैभव,बुद्धि,विवेक आदि से हमेशा परिपूर्ण रहता हैं।इन्हें मोदक बहुत प्रिय हैं।इसलिए पूजन के समय नैवेद्य में इन्हें मोदक जरूर अर्पित करना चाहिए।गणेश अथर्वशीर्ष गणेश चालीसा,गणेश सहस्रानामस्तोत्र आदि से श्री गणेश जी शीघ्र प्रसन्न होते हैं। ‘ॐ गं गणपतये नमः’ यह गणेश जी का मंत्र हैं।इसे जप कर साधक शीघ्र ही गणपति की कृपा प्राप्त कर लेता है।
राजीव नंदन मिश्र(नन्हें)

राजीव नंदन मिश्र (नन्हें)

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