कविता

झांकियां 

ये गगनचुंबी इमारते,

इमारतों की ये खिडकियां।
लगती है जैसे उड रही है,
बादल के दामन में तितलियाँ।
ये खामोशियों के साये,
सायों की ये झलकियां।
मानो उनींदी सी नींदो को भी,
आने लगी हैं झपकियां।
ये ख्वाहिशों की रंगीन झांकियां,
 झांकियों की यें रंगीनिया।
लगता है जैसे आंखे चुरा रही हैं,
मदमस्त सी ये जवानियां ।
ये दिलों की दिल्लगी,
दिल्लगी में उजडीं ये बस्तिया।
याद आती है आज हमें,
नीम बर्बादी की हस्तियां।
ये बदगुमान बेचैन दिल,
दिलों की ये बेचैनियों।
लगता है जैसे आन फंसी है,
मौत के दरमियान जिंदगियां।
ये सांसो के शोर शराबे,
शोर शराबों में दबी ये सिसकियाँ।
मानो आंखे चुरा रही है,
भंवरों की गुंजन से पुष्प कलियां।
— आरती त्रिपाठी

आरती त्रिपाठी

जिला सीधी मध्यप्रदेश