कहानी

पुश्तों से चली आ रही कोल्हा 

गांव के जमीन पर लहलहाती स्नेहयुक्त वातावरण पर न जाने किस मनहूस ने विष का प्याला धर दिया था.जिसके आगोश मे आकर पनप रहा भाईचारे का पौधा शनै-शनै झुलसने लगा था.आए दिन जाति-पाति, वर्ण-व्यवस्था, झगडा-फसाद को लेकर गांव अब शनै-शनै घमासान कोहराम का केंद्र बनता जा रहा था.
मैं उन दिनों बी.ए.का विद्यार्थी था. गांव मे उच्च-स्तरीय शिक्षा के व्यवस्था के अभाव को देखते हुए मेरे साधारण गृहस्थ बाउजी ने मुझको और शिक्षित करने हेतु पचास मील दूर आरा के एक कालेज मे नामांकन कराना पडा.उनकी स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे मुझे सुचारू रूप से इस क्षेत्र मे हो रहे व्यय का निर्वहण कर सके.किंतु उनका हौसला इतना बुलंद था कि इससे नीचे पर समझौता करने के लिए राजी ही नहीं हो पा रहे थे.
मैं वहीं लाज मे रहकर पढाई पूर्ण करने मे लगा रहा.हालांकि हमारे साथ मे वैसे ढेरों सारे विदयार्थी भी थे जो शिक्षा के आड मे अपने पिता के पूंजी को कपूर की तरह उडा रहे थे निरूद्देश्य.किन्तु मेरा विचार इन दोस्तों से सर्वथा भिन्न था.पैसा कैसे कमाया जाता है.इसके लिए कितनी मेहनत करनी पडती है.बाउजी को देखकर अंदाजा लगा लिया था.बाउजी के बदन पर मैली-कुचैली पैबंद लगे कपडे को बदन पर झुलते देखकर,मैं वैसे ही उन दोस्तों से किनारा कर लिया था.
गांव मे जब तक रहा बाउजी को हमेशा उनके हाथों को सहूलियत देने की कोशिश की,पर वह हर बार झटकते हुए यही कहते–“रामधन अपने पढाई पर ध्यान दो.इधर-उधर नजर दौडाने की जरूरत नहीं.गांव अब पहले जैसा नहीं रहा.शहर का विषाक्त हवा गांव के फिजाओं मे घुलकर अपना मिश्रित प्रभाव छोडने लगी है.किंतु मैं बाउजी के इस तरह के बातों को कभी तरजीह नहीं दिया.कयोंकि वह जानते है कि रामधन यहां मुझे देर-सबेर काम करते देखकर उसे रहा नहीं जाएगा.
जब गर्मी के छुट्टियों मे गांव आना हुआ तो लगा बाउजी सच ही कह रहे थे.उनकी बातें अक्षरस सत्य थी.मात्र इन चार महीनों में ही गांव अब गांव नहीं रह गया था.पडोसी-पडोसी का दुश्मन हो गया था.यदि दोनों अलग-अलग जाति से ताल्लुकात रखते हो.
खाना खाकर सोते समय ही उस रात बाउजी  से पूछा–” ये कया हो गया बाउजी अपने गांव को.सारी खूबियां कया हो गई.कहां चला गया वह प्रेम भाव.किसकी नजर लग गई इस गांव को.कितने बदल गए लोग. “
“स्वार्थ ने दफन कर दिया इसके अच्छाइयों को ” बाउजी ने मेरे तरफ मुखातिब होकर कहा–“कितने दिन की छुट्टी है रामधन?”
“तकरीबन एक माह की बाउजी. “
“लाज का किराया तो लगेगा न इन छुट्टियों का ? “
” हां बाउजी. “
” तो एक काम करो.कल अहले सुबह की बस से निकल जाओ…यहां रहने की कतई जरूरत नहीं.दो..चार दिनों मे ही लोगों के आंखों के किरकिरी बनकर चुभने लगोगे.और मैं नहीं चाहता….. हां,हो सके तो मां को भी लेते जाओ.”
इस पर रामधन की मां यमुना ने प्रतिवाद किया–“मैं कयों जाऊंगी भला.बबुआ नौकरी मे है का….मैं नहीं जाने वाली बुढापे मे आपको छोडकर.जाएंगे तो साथ,आएंगे भी तो साथ.मैं यहीं रहूंगी आपके साथ…”
मैं अगले दिन आरा के लिए निकल गया था,पर इन छुट्टियों के दरम्यान वहां पर मन नहीं लगा.बाउजी की बाते रह-रहकर मेरे जेहन से टकरा रही थी.
कितना भोला -भाला था रमपीरता का बेटा वचनवा जो तुम्हारा कलासफेलो था अपने जाति का लीडर बन आवारा की तरह घुमता फिर रहा है हथियार लेकर.
सोहना रात मे दो-चार लौडों को लेकर लुट-पाट मचाता रहता है.बहुत बडा गैंग से मिलान हो गया है इन लोगों का.रूपया-पइसा सब मिलता है आतंक फैलाने के लिए.
अलग-अलग गैग है.पार्टी पइसा देती है बबूआ.गांव के अंदर अब किसी मे इतना संशय या ग्रन्थि नहीं है जो ऐसा न करने के लिए रोक सके.
मै उनके भावनाओं को कद्र करने मे कभी पीछे नहीं रहा.कसौटी पर हमेशा खरा उतरा.वह जिस काम को अंजाम देने हेतु अपने गाढी मेहनत की कमाई को मुझ पर न्योछावर कर रहे थे,उनके अरमानों को किसी कीमत पर लहुलूहान होने नहीं दिया.
जब परिणाम आया तो युनिवर्सिटी मे मुझे प्रथम स्थान मिला.
यह समाचार सुनकर मां बाउजी का सीना गर्व से तनकर दुगना हो गया.उनकी बुढी हड्डियों मे एक नयी स्फूर्ति,एक नया उमंग जन्म लेकर घर के चाहरदीवारी के बीच धमाचौकड़ी करने लगा था.कयोकि गांव मे अब प्रोत्साहन वाला हाथ जाति-पाती के बीच सिमटकर दम तोड दिया था.कभी यही गांव था जब आठवीं बोर्ड के परीक्षा मे पूरे जिले मे अव्वल आया था तो गांव के लोग पीठ पर हाथ फेरते हुए कह रहे थे–“अपना रामधन जरूर एक दिन बडा आदमी बनेगा.”
खैर,आज वह आशीर्वाद सफलीभूत होता नजर आने लगा है.उच्च शिक्षा हेतु सरकार से स्कालरशिप मिलने लगी थी.मैं इसलिए बहुत खुश हो रहा था परिश्रम से मेरे बाउजी के निचुडते शरीर को राहत देने हेतु स्कालरशिप खडा होकर मेरे हौसले को बुलंद कर दिया था.मैं उसमें कुछ राशि घर भेज दिया करता.
घर से जब भी फोन आता तो हृदय के धनी लाज मालिक रामचंदर बाबू मुझे बुला लेते.रामचंदर बाबू बडा ही नेकदिल इंसान थे.मुझे वह बहुत भाते थे.उनका भी मुझ पर काफी स्नेह रहता था.यहां पर वह एक तरह का गार्जियन ही थे.भला-बुरा अच्छी तरह समझते थे.वे एक अदद समाजिक कार्य कर्ता थे.
बाउजी ने उनके बारे मे जानना चाहा तो विस्तार पूर्वक सच्चाई से अवगत करा दिया.
बाउजी को हिदायत दे डाली कि अब बूते के बाहर हाडतोड मेहनत करने की जरूरत नहीं है.
उस दिन बाउजी बहुत खुश थे जैसा कि अगली बार फोन पर मां ने बताया था.
मुझे नौकरी के लिए मथापच्ची व मशक्कत नहीं करनी पडी.फाइनल परिणाम आते ही कालेज मे ही लेकचरर की नौकरी मिल गई थी.मैं अब रामचंदर बाबू का मकान छोड दिया था.उन्होंने रोकने का असफल प्रयास किए.
कुछ स्टाफ पहले से भाडे के लिए दो-तीन अतिरिक्त कमरा बना रखे थे.मैं उसी मे से एक कमरा किराए पर ले लिया.रामचंदर बाबू यह बात सुनकर ही मुंह मे कसैलापन उतर आया था.कहा भी–“जल्दी लौटोगे रामधन.”
कुछ दिन तो ठीक-ठाक चला.पर रामचंदर बाबू कयो रोक रहे थे,मामला अब अच्छी तरह समझ मे आने लगा था.
जब भी गांव से बाउजी का फोन आता तो मकान मालिक जो मेरे हेड भी थे नाक -भौ सिकुडाते इतला करने आते और फोन कटते  कुछ भजन सुनाए बिना नहीं रहते–“रामधन एक मोबाइल ले ही लो.”
मैं ना-नुकूर करते जबाब देता-“ठीक है सर.” मै सहजता से कह दिया पर वास्तविकता कुछ और थी.वृहद खरीदफरोख्त की बात होती तो बाउजी का झुर्रियों भरा चेहरा मेरे आंखों के समक्ष टंग जाता.स्वयं से कहता-“पहले गांव से हो आऊं,उसके बाद ही.”
इसलिए पहली तनख्वाह मिलते ही गांव जाना ही उचित समझा. सारे रूपये मां-बाउजी को सौपते मुझे बेहद खुशी हो रही थी.
ये खुशियां उस समय और दुगूनी हो जाती,जब मां-बाउजी गांव छोडकर मेरे साथ रहने के लिए आरा आ जाते.परन्तु ये कतई संभव नहीं था.
इस पर मैं कुछ कहता उन्होंने मुझे मेरे संभावना के विरुद्ध बोल दिया–“रामधन अब तेरी तो पककी नौकरी तो हो ही गई.मेरा विचार है कब तक किराये के कमरा लेकर जिंदगी काटोगे.यहां का कुछ जमीन हटाकर घर बनवा लो.ये अचल संपत्ति आखिर किसलिए है.किस घडी काम आएगी.पर कया ऐसा करने हेतु मेरी आत्मा गवाही देती ?
मैं उनके बातों को सिरे से खारिज कर दिया–“नहीं बाउजी.जमीन भी नहीं बिकेगा,और घर भी बन जाएगा.”
इस बार आते समय बाउजी मुझे छोडने के लिए बस स्टेंड तक आए थे.रास्ते मे ढेरों सारी बाते हुई थी.कह रहे थे दिन-प्रतिदिन गांव की स्थिति और बदतर होती जा रही है.
मैं जिस हेड के घर मे रहता था,उनके साथ हुई समूचित बातचीत को बाउजी से कहा तो बिदक गए.उन्होंने कहा कि पहले जहां रहता था.तुम्हारे लिए सबसे सुरक्षित जगह तो वही है.
इस बार आते के साथ ही स्टाफ कमरा से निकलने का सुगबुगाहट शुरू हो गई.
कयोकि हेड बाबू से जब-जब सामना होती थी.वह मुझ पर कटाक्ष करने से नहीं चुकते थे वह. मेरे गांव मे उनकी बिरादरी होने के कारण आना-जाना लगा रहता था.
सबके सामने मुझको नीचा दिखाने हेतु कोई कसर बाकी नहीं छोडते थे.बडे-छोटे की भावना उनमें कुट-कुट कर भरी हुई थी,और उसमे हेड जैसे लोग आग बुझाने के जगह घी डालने का काम करते थे.
मैं उनके बिरादरी से नहीं था और इस कालेज मे उनके जातवालों की बहुलता थी.भला दाल-भात मे मुसलचंद कब तक बरदाश्त करते?मैं समझ गया था अब इस घुटन भरे माहौल मे उसका गुजारा संभव नहीं लगता.रामचंदर बाबू से बात किया तो वह कब से तैयार बैठे थे.उन्होंने कहा–“सर मैं तो उसी समय से राह देख रहा हूं. इतना विलंब कैसे हुआ.”
नौकरी पूर्व के व्यवहार और अब के बात-विचार मे बहुत अंतर आ गया था.जब वे मुझे सर या साहब कहते तो ऐसा लगता मुझ पर सैकड़ों घडा पानी डाल दिया हो.
मैं उनके भावनाओं को निरस्त करते हुए कहता–“प्लीज सर.आप सर या साहब कहकर शमिंर्दा न करें.मैं आपको गार्जियन के रूप मे देखता हूं.एक मार्गदर्शक की तरह.
वह मुस्कराकर रह जाते.
कितना फर्क था दोनों मे.एक ही बिरादरी के थे दोनों.रामचंदर बाबू अल्प शिक्षित हैं पर मानसिक सकीर्णताओं से परे,जबकि हेड रामपुकार मानसिक सकीर्णताओं मे जकडे.जातिवाद के पोषक. कैसे लोग होने चाहिए हमारे समाज मे.रामपुकार जैसे लोग या रामचंदर बाबू की तरह…”
तब मुझे लगा की समाजिक संरचनाओं मे सुधार हेतु शिक्षा की  नहीं,बल्कि सुझ-बुझ की जरूरत है.रामचंदर बाबू जैसे समाजिक, समाजवादी विचारक,सुधारक के रूप मे हमेशा मंचो से अपने विचारों को प्रसारित करते रहे हैं.
कमरा खाली करके आते के साथ ही मैंने संकल्प किया कि रामचंदर बाबू को गांव जाने का निमंत्रण दे ही दूं.
मेरी भावनाओं को कद्र करते कुछ कहते इसके पहले ही बोल पडा–“जो गुण आप मे है.वैसा एकाध कहीं विरले मे पाया जाता है.आपके समक्ष मैं कुछ भी नहीं,बल्कि अभी तो इस क्षेत्र मे नवजात शिशु की तरह हूं. अभी तो आपसे मुझको बहुत कुछ सीखना है.”
रामचंदर बाबू मुस्कुरा कर रह गए थे.मानों कह रहे हो–“तुम्हारा गांव जरूर चलूंगा रामधन.तुममें भविष्य की अपार संभावनाएं दीख रही है.”
— राजेंद्र कुमार सिंह

राजेंद्र कुमार सिंह

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