कविता

जीवन

जीवन तो तरुवर का है
  जो छांह पथिक को देता है
फल देकर मीठे जग की
  वह क्षुधा शमन भी करता है
जलता है दीपक जग का
     अंधियारा दूर भगाने को
काँटों में खिलकर सुमन
     सिखलाता है मुस्काने को
अँगारे सा जलता है रवि ,
    तमस जगत का हरने को
कल कल बहता झरना कहता
           है हरदम बढ़ते रहने को
विचलित ना होना कभी भले
   जीवन में गर मुश्किल आए
 है अडिग हिमालय डिगा नहीं
 तूफ़ां जितना भी जोर लगाए
पैदा होना फिर मर जाना
आसान बड़ा है यूँ जीना
मरकर भी तुम जिंदा रहना
सीखो कुछ ऐसा कर जाना

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।