मन की नदी में
तर्पण किया है पापा भावनाओं से,
भीगा सा मन लिए …
इस पितृपक्ष
फिर बैठी हूँ आकर, भोर से ही
छत पर, जहाँ कौए के
कांव – कांव करते शब्द
और सूरज की बढ़ती लालिमा
के मध्य, निर्मल स्नेह भर अंजुरी में
कर रही हूँ अर्पित,
नेह की कुछ बूंदें गंगाजल के संग
आशीष की अभिलाषा लिए!!!
…..
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