कविता

तपश्चर्या

दुख मिला है अगर तुम्हें,
निश्चित ही वह निखरने को मिला होगा।
हां दुख में ही इंसान निखरता हैं,
सुख में तो जंग खा जाता हैं
सुख ही सुख में तो इंसान मुर्दा हैं,दुख में ही उसे
नई संभावनाएं खोजने का अवसर
मिलता हैं तुम देखते,
जिसको तथाकथित ‘सुखी इंसान’ कहते हो,
वह कैसा हो जाता हैं?
उसके जीवन में कोई गहराई नहीं होती,
संघर्ष ही ना हो तो गहराई कहां से होगी?
समझदारी कहां से आएगी?
जीवन में दुख ना झेला,संघर्ष ना किया हो
तो निखार कहां से आएगा?सोना हो ना तुम,
और सोना तो आग से गुजर कर ही
स्वच्छ होता हैं,सुंदर होता हैं,पवित्र होता हैं।
जीवन की अग्नि से ही गुजर कर
आत्मा की शुद्धि होती हैं,निखरती हैं
तभी सोना खरा उतरता हैं तो जो हो,जैसा हो,
उस से भागना मत, टिके रहना, वही जागना।
असली जीना जागकर जीना हैं
जागने की प्रक्रिया में तुम्हें व्यस्त रहना हैं
जो करो होश पूर्वक करों दुख आ जाए तब भी,
दुख को भी होश पूर्वक झेलना हैं,
अंगीकार कर लेना हैं।इनकार जरा भी ना करना,
क्योंकि तुम तो सोना होना तपने की प्रक्रिया को,
स्वीकार भाव से मानकर यह सोचना,
जरूर कोई प्रयोजन होगा,और निश्चित तुम
पाओगे प्रयोजन’ ही हैं संघर्ष ही तुम्हें बदलेगा,
माँजेगा, निखारेगा, ताजा करेगा,
और किसी बड़े सुख के लिए,
बड़े उद्देश्य के लिए तैयार करेगा।
क्योंकी,जीवन तो ” तपश्चर्या ” हैं।
— दिव्या सक्सेना-कलम वाली दीदी 

दिव्या सक्सेना

कलम वाली दीदी श्रीकृष्ण कालोनी,धान मील के पीछे,मस्जिद वाली गली,सिकंदर कम्पू लश्कर ग्वालियर-म0प्र0