कविता

दर्द

दर्द कभी रूठता नहीं है औरत से
मुस्कुराता है उसके जीवन में

एहसासों की धुरी पर घूमता, विचरता सदैव
घूर्णन गति से चक्कर लगाता ही रहता है

आदतन हो जाती है औरत
जैसे गठबंधन हो गया हो दर्द से…..

पर वो रूठती नही और न ही घबराती है
एहसासों की इसी धुरी पर एकदिन
हंसना, मुस्कुराना सिख जाती है

समेट लेती है कंठ में दर्द की रुदन
और एक लंबी गहरी सांस में
निगल लेती है आंखों से बहते समंदर को

सुखाकर खारे जल को
बो लेती है उसमें खुशियों के रंग-बिरंगे फूल…..

गुलाबी काजल भरकर आंखों में
बरसाती है स्नेह, प्रेम की झमाझम बारिश
और सिंचित करती है अपने, अपनों की खुशियां……

दर्द भी ठिठक जाता है
इसी उलझन में औरत के देह से उलझ जाता है
पर वह जानती है इसे मात देना
झटक देती है दर्द को
ठीक वैसे ही जैसे अपने गीले बाल झटकती है

औरत जानती है देह की भाषा
और देह की कलम से लिखती है
नया अध्याय नया अंश अपना…..

करती है सोलह श्रृंगार
अपने नाव का बनती है पतवार
और दोनों लांघ देते है एक गहरे नदी को
निर्माण करते है नए पदचिन्हों का आवरण……

*बबली सिन्हा

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