कविता

अगले जनम मोहे बिटिया ना बनाए

बचपन में ही मेरी डोर थी बांधी
तब मैं उसे समझ ना पाई॥
पर बाद में पता चला किए
यह राह तो मुझे शैतान तक है ले आयी॥
पढ़ाई करने की उम्र में
मेरी शादी है रचाई॥
विदा कर मुझे
सबके मन को तसल्ली है आयी॥
चूल्हे की आग में
मैंने खाना भी बनाया॥
हाथ में पड़े छाले
पर यह दर्द किसी को नजर ना आया॥
घर की चारदीवारी के अंदर
मुझ बदनसीब को बिठाया॥
जिंदा लाश की तरह
उनकी सेविका भी बनाया॥
खुद की खुशी भुलाकर
औरों के चेहरे में मुस्कान मैंने लाई॥
फिर भी पांव की जूती की तरह
मुझे इज्जत है मिल पायी॥
दिन भर रोई
सारी रात में जागी॥
अब हंसने की वजह
मेरी जिंदगी से ही भागी॥
खुद बच्ची कहलाने की उम्र में
मैं माँ तो बन पायी॥
पर अपनी दर्द की सजा
मैं इस मासूम को ना दे पायी॥
ज़िद्दी मैं बड़ी
इसीलिए हार ना मान पायी॥
हिम्मत मैंने रखी
तभी तो इस दुनिया में टिक पायी॥
पर हर औरत आज
अपने आप पर अफसोस जताए॥
है और मांगे भगवान से यही
कि अगले जन्म मोहे बिटिया ना बनाएं॥
— रमिला राजपुरोहित

रमिला राजपुरोहित

रमीला कन्हैयालाल राजपुरोहित बी.ए. छात्रा उम्र-22 गोवा