कविता

चेहरों से चेहरे

चेहरों से चेहरे आज उतरने लगे,

हम चुप क्या हुये गूंगे बकने लगे ।
लोगों की सोच आजकल उनकी,
अपनी आंखो से ही बयां होती है।
क्या जानो तुम की तन में पर्दा,
नारी की आंखों में हया होती है।
हमारा चुप रहना लाजिमी था,
मगर उन्हें लगा हम उनसे डरने लगे ।
कौन समझाये अक्ल के अंधो को,
बेगैरती की मिट्टी में सने उन बंदो को ।
कि गैरत हमारी हम पर पहरा देती है,
बेगैरती तुम्हारी जख्म गहरा देती है।
पर हम खुद की खुदाई में जिंदा है,
तभी तो तुम जैसे लोग शर्मिंदा है।
आज आग हो कल राख हो जाओगे,
खुद जलोगे गर किसी और को जाओगे।
मिट्टी के जिस्म पे मत इतना गुमान करो,
इंसान हो तो इंसानियत का सम्मान करो।
एक दिन चंद लकडिय़ों के सुपुर्द हो जाओगे,
जागेंगे कर्म तुम्हारे और तुम सो जाओगे।
मानव तन पाया है तो कुछ नेक काम करो,
मां बाप को तीर्थ समझ घर में चारो धाम करो।
बाद में करनी पर पछताने से क्या फायदा,
याद रखो भूलो मत इंसानियत का कायदा।
हंस कितना भी भूखा हो पत्थर नहीं खायेगा,
हमें मिट्टी में मिलाने वाला खुद मिट्टी में मिल जायेगा।
— आरती त्रिपाठी

आरती त्रिपाठी

जिला सीधी मध्यप्रदेश