मुक्तक/दोहा

मुक्तक : बुजुर्ग

ताउम्र निभाता रहा फर्ज, खुद की खातिर कभी जिया ना,
सुकुन से बैठकर नहीं खायी रोटी, दो घूंट पानी पिया ना।
रात दिन एक कर दिया था, परिवार की खुशी के वास्ते,
आरोप लगता है कर्तव्य था, अहसान कुछ भी किया ना।
जो कुछ कमाया, दे दिया सब परिवार को,
खुश रहें बच्चे, प्राथमिकता सदा विचार को।
दुर्भाग्य इस दौर का, समाज अर्थ प्रधान बना,
ठुकराने लगे हैं बच्चे अब, बुजुर्गों के प्यार को।
— अ कीर्ति वर्द्धन