कविता

हिन्दी

यह कैसी विडंबना है कि
हमनें हिन्दी को
अपनी ही भाषा को
उपेक्षित कर रखा है,
हमें शर्म भी नहीं आती
कि हमें हिन्दी दिवस
हिन्दी सप्ताह, पखवाड़ा
मनाना पड़ता है।
अरे!हमसे अच्छे तो
वो विदेशी हैं
जो अपनी भाषा के साथ साथ
हिन्दी को मान दे रहे हैं,
हिन्दी सीख रहे हैं,सिखा रहे हैं
हिन्दी अखबार, पत्र-पत्रिका
निकाल रहे हैं,
हम से ज्यादा
हिन्दी का मान कर रहे हैं।
और हम हैं कि
न तो हम ढंग से
अंग्रेजी को सम्मान दे रहे है
और न ही अपनी मातृभाषा को
उचित मान,स्थान दे पा रहे हैं।
मगर हम भी क्या करें?
हमारी तो आदत है न
घर की मुर्गी साग बराबर
और हम नहीं सुधरेंगे का
हमारा फार्मूला।
रोती हिन्दी,
सिसकती हिन्दी,
जय हिन्दी।
हमारी बेशर्मी को
आधी अधूरी अंग्रेज़ी, हिन्दी
झुककर नमन करे हिन्दी।
★सुधीर श्रीवास्तव

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921