कविता

दबदबा

दबदबा हुआ करता था मेरा भी
लोग मुझे जानते थे
पहचानते थे
घिरा रहता था अक्सर महफिलों से
कभी इस होटल में कॉकटेल
तो कभी उस होटल में कॉकटेल
रौनक था मैं महफिलों की
जान हुआ करता था उनकी
बेशुमार याराना था मेरा
हुआ फिर एक दिन ऐसा
रूखसत हो गया इस जहां से
बहुत बड़ा कारवां था
जनाजे के साथ मेरे
जमींदोज कर दिया
ले जाकर कब्रिस्तान में
मैं पड़ा कब्र में
अपनी वीरानी पे रो रहा
झाड़ झंगाड़ उग आए
मेरी कब्र के चारों तरफ
कभी कोई कुत्ता आकर
सूंघ कर
कर जाता  तरबतर
इतनी जल्दी भूल जाएंगे
नशुकरे हो जाएंगे
ऐसा सोचा  न था
कभी याद आता हूं
किसी को
तो जला जाता है एक दिया
मेरी मजार पर
मैं दफन हुआ कब्र में
यह सोच रह जाता हूं
क्या हुआ मेरा दबदबा
जिसके लिए
मैंने बोले थे
कितने झूठ
किए थे
कितने छलावे
और क्या क्या न किया
कब्र में पड़ा हुआ
एकांत में
सब याद अा रहा है मुझे
जीते जी कोलाहल में
जो भूल गया था मैं

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020