कविता

दुनियां पागल है यां फिर मैं दीवाना

दुनियां है इक पागल खाना
मैं भी पागल
तुम भी पागल
सब के सब यहां हैं पागल
कोई पैसे को पागल
कोई शौहरत को पागल
कोई प्रेम में पागल
कोई है निराशा में पागल
कोई भगवान पाने को पागल
कोई उसकी भक्ति में पागल
जिधर देखो उधर पागल ही पागल
कोई ईर्ष्या में पागल
कोई द्वेष में पागल
कोई गुरूर में पागल
कोई अपनों में पागल
कोई अपनों से पागल
कोई गैरों में पागल
कोई गैरों से पागल
लगा पागलों का जमघट है
इस मेले में घूम रहे
पागल ही पागल
कोई फटी जीन्स में घूम रहा
कोई हाफ पैंट में घूम रहा
कोई आधी शर्ट पैंट में दाब घूम रहा
कोई कान में बाली डाल घूम रहा
कोई भोहों में डाले घूम रहा
कोई लड़का होकर
लड़की बना घूम रहा
कोई लड़की होकर
लड़का बना घूम रहा
कह के देखो
किसी को पागल
गुस्से से हो जाएगा पागल
दे उठा पत्थर मारेगा
बरसात घनघोर
गलियों की कर देगा
तू पागल तेरा बाप पागल
उठा लेगा
आसमां सर पर
हरकते सभी यह पागलों जैसी
इसीलिए दुनियां है
इक पागल खाना
मैं भी पागल
तू भी पागल
सारी दुनियां पागल पागल

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020