गीतिका/ग़ज़ल

रिश्तों का संसार

सिमट रहे परिवार, विराना लगता है,
रिश्तों का संसार, सुहाना लगता है।
ताऊ- चाचा, बुआ- मामा कैसे होते,
नये दौर में ख्वाब, पुराना लगता है।
बेटा- बेटी नही चाहियें, नव पीढी को,
एक बच्चे के लिये, मनाना पडता है।
आजादी का जश्न मने, कोई रोके न टोके,
घर घर में यह राग, सुनाई पडता है।
अर्थ बना प्रधान, नही रिश्तों की कीमत,
तन्हाई में यूं ही, वक्त बिताना पडता है।
दादा- दादी वृद्ध आश्रम ठौर खोजते,
मात- पिता को, आँख बिछाना पडता है।
भाई- बहना घर में होते, प्यार उमडता,
प्यार का भी सार, उन्हें सिखाना पडता है।
रहते हैं परिवार इकट्ठे, जिस जिस घर में,
रिश्तों का अहसास वहाँ पर पलता है।
समय की पुकार समझ लो, भाई बहनों,
संयुक्त अगर परिवार, निभाना पडता है।
रिश्तों की फुहार, खुश्बू संबन्धों की हो,
बच्चों को संस्कार, सिखाना पडता है।

— अ कीर्तिवर्धन