कविता

एक संवाद ज़िन्दगी के संग

आ ज़िन्दगी बैठ थोड़ा बात करते हैं

मानस-पटल में सुबिचारो का सागर भर
हृदय-कमल में अमर ज्योति जलाते हैं
आज एक नया इतिहास लिखते हैं।
आ ज़िन्दगी बैठ थोड़ी बात करते हैं
गुनाहों के उड़ते पंख को मुट्ठी में मसल
सुकून के सफर का मनोरम राह ढूंढ़ते है
वर्तमान हालातो की आवाज लिखते है।
आ ज़िन्दगी बैठ थोड़ी बात करते हैं
समूचे धरा को रँग-बिरंगे दरख़्त से ढक
हरियाली के दामन को अनुपम आयाम देते हैं
प्रकृति के स्वर्णिम काल का आगाज लिखते हैं।
आ ज़िन्दगी बैठ थोड़ी बात करते हैं
अस्त्र व शस्त्र को श्मशान के ठिकाने कर
अर्धनग्न देह पर मंजुल वस्त्रों को चढ़ाते हैं
मानवता का एक पुनीत रिवाज लिखते हैं।
आ ज़िन्दगी बैठ थोड़ी बात करते हैं
कच्चे बिचारो के अनुपजाऊ बंजर मिट्टी में
उर्वरा से पोषित पक्के बिचारों का बीज बोते हैं
बिचारों के फसल की आभा का अंदाज लिखते हैं।
आ ज़िन्दगी बैठ थोड़ी बात करते हैं
मुस्कानों का मनोरम सा तान छिड़ककर
होंठो के सन्तूर को सब मिल बजाते हैं
वक्त की पुकार का नूतन अल्फाज लिखते हैं।
— आशुतोष यादव

आशुतोष यादव

बलिया, उत्तर प्रदेश डिप्लोमा (मैकेनिकल इंजीनिरिंग) दिमाग का तराजू भी फेल मार जाता है, जब तनख्वाह से ज्यादा खर्च होने लगता है।