लघुकथा

एकल परिवार का दंश

बुजुर्ग दम्पति का संवाद
पति-लखन की माँ !अब इस उमर में हमसे तो कुछ होने वाला नहीं है।क्यों न हम वृद्धा आश्रम में ही चलें।
पत्नी-लखन के बापू बात तो ठीक है। मगर अपना घर छोड़कर क्या अच्छा लगेगा?
पति-अब अच्छा खराब देखोगी या सूकून से मरना चाहोगी?
पत्नी-आखिर बेटा क्या सोचेगा?
पति-जो भी सोचना है सोचे, मगर अब इस तरह रह पाना मुश्किल है। अभी ज्यादा समय भी कहाँ बीता? जब तुम मरते मरते बच गई। वो तो भला हो पड़ोसियों का।जिन्होंने इतना ध्यान रखा और एक बेटा है हमारा, जिसे फुरसत नहीं है।
पत्नी -बात तो सही है।अब हम कल ही वृद्धाश्रम चलेंगे, अपनी सारी सम्पत्ति भी उसी वृद्धाश्रम को दान कर देंगे।
पति- मैं भी यही सोच रहा था।आखिर जब बेटा ही किसी काम का नहीं हैं, तो कैसी सम्पत्ति? समझ में नहीं आ रहा आजकल का एकल परिवार का फैशन समाज को कहाँ ले जायेगा?
छोटे छोटे बच्चे भी बड़ो की इज्ज़त नहीं करते। वो हमारा छोटू है,वो भी बाबा दादी के पाँव तक नहीं छूना चाहता। पास नहीं आता। मन में कसक सी होती है।
पत्नी-अब दुखड़ा न गाओ,हमारे सास ससुर ने हमें कितना सहारा दिया।मैं तो अपने माँ बाप को ही भूल गई। हमारा बेटा भूख लगने पर ही माँ को याद करता था।दादी बाबा का दुलारा जो था।
पति- अब रहने भी दो।दर्द न बढ़ाओ। उस जमाने की बात और थी।नया जमाना तो माँ बाप को लावारिस की ही मौत देगा। इसी एकल परिवार के कारण अब सगे संबंधी भी बिखर रहे हैं। बेटे को ससुराल और बहू को मायके के अलावा किसी की फिक्र नहीं रही।
पत्नी-आप भी बेकार की बात लेकर बैठ गये। जब हमारी फिक्र नहीं,तो फिर कौन रिश्तेदार, संबंधी। सब खत्म।बस बिना कुछ सोच विचार के कल की तैयारी करो।
पति-हाँ लखन की माँ।अब यही ठीक है।
पति पत्नी नये विश्वास के साथ उठे और अपनी तैयारियों में लग गये।
■ सुधीर श्रीवास्तव

*सुधीर श्रीवास्तव

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