कविता

पुरुष बेचारा

पुरूष बेचारा, किस्मत का मारा
नहीं मिलता उसे किनारा,
गधों की तरह दिन भर,
रोजी रोजगार करता,
घर पहुंचता तो माँ,बाप,पत्नी के
उलाहने, शिकायतें सुनता,
बच्चों की फरमाइशें सुनता,
बेचारा बोल भी नहीं पाता।
ऊपर से माँ के ताने
बीबी के बेसुरे तराने सहता,
अपनी कहे भी तो किससे,
सिर्फ़ कुढ़कर रह जाता
अगली सुबह के इंतजार में
मन मारकर सो जाता।
ईश्वर की भी अजब माया है
पुरुषों के रुप में
एक और गधा भी बनाया है,
पुरुषों ने जाने कौन सा दंड पाया है।
हे प्रभु!कुछ तो ख्याल करो
पुरुष बनकर निहाल हो गया।
अब तो रहम करो,
अपनी ही बिरादरी के हो
कम से कम इसी का ख्याल करो
पुरुषों को अब और न हलाल करो,
पुरुष रुपी प्राणी का
अब न निर्माण करो।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921