कविता

रणभूमि

यह विडंबना नहीं
तो और क्या है?
बेटियों के लिए उनका आँगन
जैसे रणभूमि बन गया है।
जहाँ हर समय
अपना सतीत्व बचाने के लिए
लड़ना पड़ रहा है,
हर ओर फैले कौरवों के बीच
जैसे फँसा अभिमन्यु
बार बार मर रहा है।
आखिर बेटियां भी इस रणभूमि में
कैसे कब तक बचेंगी ?
या इसी तरह एक एक कर
दम तोड़ती रहेंगी?
या हम सब इंतजार में हैं कि
कोई कृष्ण फिर आयेगा
जो हमारी बेटियों की
लाज बचायेगा।
क्या तब तक बेटियों को
यूँ ही लड़ना होगा,
अपने ही भरोसे
जीना या मरना होगा।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921