कविता

व्यथा : माँ की

एक माँ की व्यथा कोई न जाने,
जाने भी गर तो क्यों न माने,
माँ देती जन्म पुरुष और स्त्री को,
जिनका बाल रूप है बालक-बालिका,
गूँजती हैं घर में किलकारियाँ,
दोनों ही होते सन्तान हैं।

क्यूँ बालिका बनती भय की काया,
बालक बनता हवस का पुजारी,
क्यों माँ की ममता को शर्मिंदा करते,
क्यों करते हैं शर्मनाक हरक़तें,
माँ का हृदय छल्ली होता है तब,
जब अँगना में दरिंदें खुले घूमते।

बालिका बढ़ते ही जब स्त्री कहलाई,
ख़ुदको इस दुनिया में असुरक्षित पाई,
बालक बढ़कर जब मर्द कहलाया,
अपना सारा हक़ नारी पर जताया,
होकर विवश फ़िर ममता ने त्यागा,
कहकर “सन्तान मेरा नहीं, तू है अभागा”।

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गीतिका पटेल "गीत"

बिलासपुर (छत्तीसगढ़)