कविता

उम्मीदों की धारा

कराहा होगा फूट-फूटकर वो बिचारा ।
जो टूट गयी होगी उम्मीदों की धारा ।।
कुछ तो रहा होगा जिंदगी से लगाव ।
कौन सी तनाव खुदकुशी की पड़ाव ।।
सब कुछ तो रहा होगा उनके पास ।
फिर क्यों उठ गया जीवन से विश्वास ।।
रहा होगा आन शान शौकत ।
रहा होगा रुतबा पैसा इज्जत ।।
इनमें से कुछ भी उन्हें रोक नहीं पाया होगा ।
कौन सा गम रहा जो इतना सताया होगा ।।
कमी रह गई होगी एक ऊंचाई की ।
एक अदद दोस्त के वो गहराई की ।।
कमी रह गई होगी उस मुकाम पर ।
एक अदद राजदार एक रह गुज़र ।।
एक दोस्त जो साया बन करे रखवाला ।
वो दोस्त वो यार राजदार वो हमप्याला ।।
जो नुक्कड़ पर चाय पिए साथ साथ ।
हमसफर बनकर वो जिए साथ साथ ।।
तो शायद जीवन से यूं नहीं होता हारा ।
यूं टूटकर न बिखरी होती उम्मीदों की धारा ।।
— मनोज शाह ‘मानस’ 

मनोज शाह 'मानस'

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