परम्परा या वैज्ञानिक दृष्टिकोण
कुँवारे कार्तिकेय की कुँवारे द्वारा ही पूजा जाने– परम्परा या वैज्ञानिक दृष्टिकोण ! सनातन धर्म के इष्टदेव शिव के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय देवकुमार कुँवारे हैं और मेरे गाँव में कई सौ वर्षों से बांग्ला पंचांग के लिहाज़ से कार्तिक संक्रांति में, जो प्रत्येक वर्ष 17 नवम्बर की तिथि को कार्तिकेय मंदिर में प्रतिमा रूप में कार्तिक देवकुमार की पूजा-अर्चना होती है ।
इसके साथ ही मेरे गाँव में सदियों से प्रत्येक घर में ‘लाई’ (लाड़ू) व्यंजन की पूजा होती है, जो कि कुँवारे संतान के द्वारा ही की जाती है । ‘लाई’ के कुछ अंश को घर के छत – छप्पर पर रख दिये जाते हैं, यह पक्षियों के लिए होते हैं ।
मुझ कुँवारे के लिए भी यह पूजा गृहीत है । कभी – कभी लगता है, यह परंपरा है, किन्तु इनमें वैज्ञानिक महत्ता छिपा है । यह मकर संक्रांति की शुरुआत है । हम कुँवारे तो सेनापति हैं, अपने – अपने घरों के ! पूरे देवसमाज के वीर सेनापति कार्तिकेय देवकुमार जो हैं ।
मेरे गाँव में इस अवसर पर मेले भी लगते हैं । अब तो जगह – जगह दुकान व मिठाई उपलब्ध हैं, बावजूद मेले की महत्ता का क्या कहना ? …. इहाँ आकर ही रसमोहित हो सकते हैं, इतर कतई नहीं ! आस्थाधारकों और मयूरवाहक कार्तिकेय देवकुमार के प्रति आदरनायें !