धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

समस्त मनोकामनाओं को शीघ्र पूर्ण करती हैं छठी मइया

छठ बिहार प्रदेश का एक प्रमुख महापर्व है।इस महापर्व में छठी मैया एवं भगवान सूर्यानारायण का विशेष रूप से पूजन किया जाता हैं।वास्तव में कोई भी पर्व एवं त्योहार किसी विशेष क्षेत्र आदि का नहीं होता परंतु जिस क्षेत्र आदि से उसकी शुरुआत होती है या फिर जहां से मनाने की परंपरा का विस्तार होता है, उस क्षेत्र को उसका श्रेय प्रदान किया जाता हैं।आज यह भारत के हर क्षेत्र में धूमधाम एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता हैं।पिछले कुछ वर्षों से छठ की छटा सात समुंदर पार भी देखने को मिला हैं।अमेरिका सहित विश्व के अन्य कई भागों में आज इसे विशिष्टता, विश्वास एवं उत्साह के साथ मनाया जा रहा है।यह महापर्व अपने आप में आस्था,लोकसंस्कृति एवं एकता को समेटे हुए हैं। इस पर्व को मनाने के लिए दूर दराज के क्षेत्रों में नौकरी-व्यवसायादि करने वाले लोग अपने घरों को वापस लौटते हैं।इन दिनों घरों की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता हैं।इस व्रत को करने वाले श्रद्धालु कोई पुत्र हेतु,कोई विवाह हेतु कोई धन-समृद्धि हेतु,कोई रोजगार-नौकरी एवं व्यवसाय हेतु -अन्य अलग-अलग कामनाओं के साथ इस व्रत को करते हैं।छठी मइया एवं सूर्य देव भी अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करते।वे अपने भक्तों की झोली खुशियों से शीघ्र भरते हैं।वास्तविकता तो यह भी है की जिस प्रकार हमसभी किसी व्यक्ति विशेष द्वारा कोई कार्य सिद्ध होने पर उसका धन्यवाद एवं आभार व्यक्त करते हैं ठीक उसी प्रकार इस व्रत से शीघ्र मनोकामना पूर्ण होने के पश्चात अगले वर्ष श्रद्धालु पुनः इस व्रत को कर भगवान सूर्य देव एवं छठी मैया को समर्पित होकर आशीष प्राप्त करते हैं।इस पर्व में न तो कोई अपनी अमीरी दिखा सकता है और न ही किसी की गरीबी दिखती है।
छठ पूजा कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है इस व्रत को करने वाले व्रती को सिर्फ 1 दिननहीं बल्कि उन्हें 4 दिनों तक विशेष नियमों का ध्यान रखना होता हैं।इसका प्रथम चरण चतुर्थी तिथि से ही प्रारंभ हो जाता है।इस दिन व्रती का नहाए-खाए होता है।नहाए खाए के दिन व्रती विशेष रूप से घर की साफ सफाई करती हैं। चारों तरफ पवित्रता का पूरा ध्यान रखा जाता है।स्नान आदि के बाद सात्विक आहार ग्रहण किया जाता है। गेहूँ के आटे की रोटी,चने की दाल आदि इस दिन का विशेष आहार होता हैं।उसके अगले दिन पंचमी तिथि को खरना होता है।खरना के दिन व्रती दिन भर आहार नहीं लेते हैं।शाम के समय सात्विक आहार में गुड़ की खीर जिसे बखीर भी कहा जाता है या लौकी की खीर आदि ग्रहण करते हैं।इस दिन प्रसाद स्वरूप इस आहार को अपने मित्र या पड़ोसी को निमंत्रित कर श्रद्धा पूर्वक ग्रहण भी कराया जाता हैं।षष्ठी तिथि को निर्जला व्रत किया जाता हैं।बांस की टोकरी जिसे बहँगी कहा जाता है उसमें पूजन सामग्री नैवेद्य हेतु फल,ठेकुआँ आदि रखा जाता है।घर का कोई सदस्य नया वस्त्र धारण करके इस बहँगी को दोपहर बाद नदियों के किनारे तक पहुंचाते है।व्रती संध्या के समय घाट पर पूजन करती हैं।अपने गीतों-भजनों से सूर्य देव छठी मैया को प्रसन्न करते हैं।भगवान आदित्य देव के अस्त होने की समय नदी में प्रवेश कर अर्घ्य देकर आशीष की कामनाएं करती हैं।अस्ताचलगामी सूर्य  की अंतिम किरण को  जल में दूध डालकर अर्घ्य दिया जाता हैं।रात भर जागरण के पश्चात यही अर्घ्य प्रक्रिया अगले दिन सप्तमी तिथि को दुहरायी जाती  हैं परंतु इस दिन उगते सूर्य को अर्घ्य निवेदित किया जाता हैं।इसके पश्चात घर-घर प्रसाद का वितरण करवाया जाता है।इस प्रकार से इस व्रत की संपूर्णता होती हैं।
छठ पूजा में कोसी भरने की भी परंपरा पुराने समय से ही रही हैं।जोड़े में कोसी भरना बहुत शुभ माना जाता है।
सूर्यषष्ठी की संध्या में छठी मइया एवं सूर्य देव को अर्घ्य देने के बाद घर के आंगन में कोसी का श्रद्धा पूर्वक पूजन किया जाता है।पाँच गन्ने की समूह का छत्र अर्थात मंडप जैसा बनाया जाता है।कोसी भराई में इस्तेमाल किये गए पांच ईख पंचतत्व होते हैं। ये भूमि, वायु, जल, अग्नि और आकाश का प्रतिनिधित्व करते हैं।मंडप छत्र बनाने के बाद लाल रंग का कपड़ा लेकर उसमें फल,केराव,ठेकुआ, अर्कपात, रखकर गन्ने की छत्र से बांध या टांग दिया जाता हैं।उसके अंदर कुम्हार द्वारा दिये गये गणेश स्वरूप का हाथी रखकर उस पर घड़ा रखा जाता है।उसे दीपों से सजाया जाता हैं।मिट्टी के हाथी को सिन्दूर लगाकर घड़े में मौसमी फल व ठेकुआ, अदरक, सुथनी, आदि समाग्री रखी जाती है।
उसके बाद कोसी के चारों ओर अर्घ्य की सामाग्री से भरी सूप, डगरा, डलिया, मिट्टी के ढक्क्न व तांबे के पात्र को रखकर दीया जलाया जाता हैं।अग्नि में धूप डालकर हवन भी किया जाता हैं।यही प्रक्रिया अगले  सुबह नदी घाट पर दोहरायी जाती है।अर्घ्य देने के बाद अर्पित प्रसाद नदी में प्रवाहित कर श्रद्धालु ईखों को लेकर घर लौट जाते हैं।
इस व्रत का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है।महाभारत काल में इस महापर्व की जानकारी प्राप्त होती हैं।दानवीर कर्ण सूर्य के पुत्र थे। इसकी शुरुआत सबसे पहले उन्होंने सूर्य की पूजा करके की थी।कर्ण प्रतिदिन घंटों सूर्य पूजा करते थे एवं उनको अर्घ्य देते थे।भगवान सूर्यनारायण की कृपा से ही वे  महान योद्धा बने।ऐसे महान योद्धा जिनकी प्रशंसा आज भी लोग आदरपूर्वक करते है एवं उनकी वीरता का उदाहरण भी देते है।उस समय से ही आज तक छठ में सूर्यदेव को अर्घ्य देने की  परंपरा चली आ रही है। एक और कथानुसार जब पांडव अपना सारा राज-पाठ कौरवों से जुए में हार गए, तब द्रौपदी  ने विधिपूर्वक छठ व्रत किया।इस व्रत के प्रभाव से ही पांडव विजयी हुए एवं उनका हारा हुआ हुआ राज्य पुनः वापस मिल पाया।
पौराणिक कथा के अनुसार,श्रीरामचंद्र जी ने लंका के राजा रावण का वध विजया दशमी को किया। दीपावली को वे वापस अपने राज्य अयोध्या लौट आए।अयोध्या आने के बाद भगवान श्रीराम और माता सीता ने रामराज्य की स्थापना के लिए इस व्रत को किया और विधिपूर्वक  सूर्य देव की पूजा अर्चना की थी।
एक और पौराणिक कथा के अनुसार प्रियंवद एक महान राजा थे।उनका साम्राज्य हर प्रकार से सम्पन्न था।उनके राज्य में आने वाला अतिथि कभी निराश होकर नहीं लौटता था।हर तरह से संपन्नता थी परंतु राजा को कोई पुत्र नहीं था।पुत्र न होने के कारण वे हमेशा दुखी रहते थे।उन्होंने संतान प्राप्ति हेतु महर्षि कश्यप से यज्ञ करवाया।यज्ञ समाप्ति होने पर महर्षि ने प्रसाद स्वरूप यज्ञ का हविष्य राजा की पत्नी मालिनी को ग्रहण करने को दिया।समयोपरांत पुत्र हुआ पर दुर्भाग्यवश वह मृत पैदा हुआ।प्रियंवद एवं रानी मालिनी बहुत दुःखी हुए।राजा अपने मरे हुए पुत्र को लेकर श्मशान गए एवं सम्पूर्ण सृष्टि को स्मरण करते हुए कि न जाने कौन सा पाप मुझसे हो गया हैं अब ऐसा जीवन जीने से क्या लाभ सोचकर पुत्र वियोग में अपने प्राण त्यागने लगे।उसी समय ब्रह्मा जी की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुई और उन्होंने राजा से कहा कि वह उनकी पूजा करें उन्होंने कहा कि मैं देवी सृष्टि के मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हूं इसलिए मुझे षष्ठी देवी कहा जाता है।आप हमारी पूजा करें। राजा प्रियंवद एवं मालिनी ने प्रसन्नता पूर्वक उनका पूजन किया। समयोपरांत राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
यह व्रत अपनी सभ्यता एवं संस्कृति का भी परिचायक हैं।नदीयों एवं घाटों का सफाई होने से जल का प्रवाह भी सही हो जाता हैं।स्वच्छता का एक महान संदेश इस महापर्व में छुपा हुआ हैं।सूर्य देव,उषा काल,सायं काल,जलके देवता वरुण,एवं वायु देवता के प्रति भी आभार का यह एक मनोरम व मनोहारी समय होता हैं।इसमें घी का दीपक जलाया जाता हैं।घी का दीपक एक तरफ प्रदूषण कम करता है वही यह रोगाणुओं को भी नष्ट करने की क्षमता रखता हैं।कुल मिलाकर हजारों वर्ष पुराने इस धार्मिक महापर्व से वैज्ञानिक युग को भी एक बहुत बड़ी सिख मिलती हैं।
इस पर्व को लेकर लोगों में एक खास उत्साह होता है।हर घरों को तो साफ किया ही जाता हैं गलियों को,नदी घाटों को भी साफ कर रंगोली बनाया जाता हैं एवं पुष्प से दुल्हन की तरह सजाया जाता हैं।लाइट की व्यवस्था भी की जाती हैं।व्रतियों को किसी प्रकार का कोई कष्ट न हो इस बात का ध्यान न व्रती के घर के व्यक्ति बल्कि पूरे मोहल्ले के व्यक्ति भी रखा करते हैं।व्रतियों का आशीष पाना भी अत्युत्तम होता हैं।
एक ऐसा राज्य जो न केवल उदित सूर्य को अर्घ्य देता हैं, उनका पूजन करता हैं बल्कि वह डूबते हुए सूर्य को भी अर्घ्य देता है, सूर्य देव के हर रूप का पूजन करता हैं।इस परंपरा को प्रारंभ करने का श्रेय बिहार के लोगों को जाता हैं और आज पूरा विश्व इस परंपरा को अपना रहा हैं।इस मौके पर कई जगह भगवान सूर्य की मूर्तियाँ स्थापित कर विधि-विधान से पूजा की जाती हैं।मेले का भी आयोजन इस मौके पर होता हैं।भगवान सूर्य देव एवं छठी मैया के इस व्रत को करने से घर सदैव सभी सद्गुणों, वैभवताओं धन-पुत्रादि से सदा सम्पन्न रहता हैं।
✍🏻 राजीव नंदन मिश्र (नन्हें)

राजीव नंदन मिश्र (नन्हें)

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