कविता

खुद की तलाश

आईना खुद की तलाश में

एक रोज़ हम आइने से मिले,
आइना मुझसे मिलकर चौक गया,
ख़ुद को खुद से मिलाकर,
मैं भी खुश थी।
पर अनगिनत सवाल हम दोनों की,
निग़ाहों में तैर गए।
जैसे क्या हम साथ होकर साथ है?
एक सदी से हम मिले ही नही,
जुदा भी न हुए औऱ साथ भी न रहे।
जाने किस दौड़ में दौड़ रहे दोनों।
कितने ही रोज हुए खुद से बात किये,
कोई गीत गुंनगुनाये,
बालों की लटों को सुलझाए,
कोई ग़ज़रा बालो में सजाएं।
चौखट पर दीया जलाए भी तो
कई रोज बीत गए!
जाने किस तलाश में गुम है ये दिल,
जब आइने से हज़ार बातें बिना कहे,
हो गयी तो सुकूँ मिला क़ई चलो,
कोई तो है जो जानता है मुझे,
दूर से ही सही और पहचानता है मुझे।
बस इसी मदमस्ती में मैं खरीद लायी हूँ
अनगिनत शीशे घर के हर कोने में,
सजा दूँगी आते जाते रोज खुद से,
मिल भी लिया करूँगी और हां अब,
बिंदिया को करीने से लगाऊंगी,
माथे पर की कोई है अब जो अब,
घर मे हर तरफ से देखता है मुझें।

— डिम्पल राकेश तिवारी

डिम्पल राकेश तिवारी

वरिष्ठ गीतकार कवयित्री अवध यूनिवर्सिटी चौराहा,अयोध्या-उत्तर प्रदेश