कविता

आत्म अवलोकन

एकांत की परछाई,
अब साथ साथ नही चलती, थमी है

दुबकी,कोने में,शांत,
कोई छाया,प्रति छाया नही,
मंदिर की घंटियों,
शमशान में शव में अग्निदग्ध,
सूखी बल्लियों से ध्वनित
चटखने की आवाज में,
एकात्मक समानता,
वैराज्ञ,
आत्म मंथन,
व्योम में विचरता मानव,
लोट आया है नीड़ में,
विचारों की चादर ओढे,
दुबका है,
दोनों हाथों से ढाल बन कर,
नन्हो की चिंता लिए,
मिथ्या है,
जीवन के रेशो के छोरों की खोज,
धन,बाहुबल,सामंती रौब,
दम्भ, ज्ञान, विज्ञान,तंतुजाल
सब शरणागत,
उस अदृश्य महाशक्ति के सामने,
घुटने टेके,
जो विपन्न दरीद्र के
हृदय में शाश्वत सत्य की
मानिद स्थापित है,

— संजीव ठाकुर

संजीव ठाकुर

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