कविता

बेटियाँ

उड रही हैं बेटियाँ, उस उडान की तरफ,
अन्जान जिसकी मंजिल, मुकाम की तरफ।
विस्तृत गगन सामने, कोमल पर लिये,
धरा छोड बढ रही, आसमान की तरफ।
है गगन विशाल सामने, सूरज भी जल रहा,
उडने की ललक है, मन्जिल का नही पता|
हों बाज से प़ंख, और वापसी का भान भी,
आगे बढें मगर बेटियों को, इतना तो दो जता|
— अ कीर्ति वर्द्धन