भाषा-साहित्य

जीने की कला का दस्तावेज : “जीना इसी का नाम है”

साहित्य का मूल अभिप्राय है सहित की भावना का विकास करना। वही मनुष्य जीता हुआ माना जाता है जिसमें साहित्य के प्रति लगाव हो। जो सबको साथ लेकर चल सके। जिसका जीवन जीने के पावन उद्देश्य से भरा हो। जो गर्व से कह सके कि उसने जीवन जीया है और सबको भी ऐसा ही लगे। इसी संदर्भ को दृष्टिगत रखते हुए तीस वर्षों से लेखन के देदीप्यमान नक्षत्र श्री राजकुमार सिंह राजन जी अपनी इस पुस्तक “जीना इसी का नाम है” में उनतीस आलेखों द्वारा जीवन जीने की कला सिखा रहे हैं।

श्री राजन जी अपनी बात में कहते हैं कि, “……लेकिन यह ऐसा दर्पण होता है जो समाज की हकीकत को सिर्फ दिखाता ही नहीं, उस दिशा का संकेत भी देता है जिसकी ओर चलकर समाज अपने आप को बेहतर भी बना सकता है। यही साहित्य का एक बड़ा प्रयोजन भी है।” गद्य और काव्य की विविध विधाओं के माध्यम से जनता से सतत जुड़ने वाले रचनाकार श्री राजन जी बाल साहित्य को लेकर बेहद संजीदा रहते हैं। पर्यावरण के प्रति भी बहुत सचेत। ‘सत्य हमारी सभ्यता-संस्कृति का सार है’ नामक आलेख में उन्होंने जीवन को नए नजरिये से देखा है। उनका मानना है कि, “जीवन एक गीत है, यदि कोई गा सके। जीवन एक अवसर है यदि कोई उसका उपयोग कर सके। जीवन एक साहसिक यात्रा है, यदि कोई निर्भयता से आगे बढ़ सके। जीवन एक रहस्य है, यदि कोई उसको जान सके।” जीवन को समझाने के उपरान्त उन्होंने संत कबीर की वाणी में ‘पंडित’ का निहितार्थ निकाला। उनके अनुसार, “पंडित वह होता है जो प्रेम की लिपि पढ़ता है और प्रेम की भाषा बोलता है।”

भारत में हिंदी भाषा की वर्तमान स्थिति और दुर्दशा पर भी लेखक का ध्यान गया। इसका जिम्मेवार लेखक के शब्दों में, “हिंदी के सबसे ज्यादा दुश्मन वे हिंदी वाले लोग हैं जो केवल मंचों पर हिंदी में भाषण देकर, गोष्ठियाँ आयोजित कर नारे लगाते हैं। सरकारी रुपयों का दुरुपयोग करते हैं। उनके घरों में हिंदी का कोई वातावरण नहीं होता। उनके बच्चे हिंदी स्कूलों में नहीं पढ़ते। ऐसे लोग राष्ट्र की गरिमा की रक्षा नहीं कर सकते।….. हिंदी की ताकत को हम हिंदी वाले, कमतर आँककर एक ऐसे सच से मुँह चुरा रहे हैं जो सबको पता है….।”

लेखक का यह भी मानना है कि अब दूसरों की ओर आशान्वित नजरों से देखना बंद करना चाहिए। ‘अप्प दीपो भवः को अपनाना चाहिए। लेखक के अनुसार, “असरकारी प्रकाश वह है जो हमें रास्ता दिखाए। भीतरी उमंग उल्लास ही हमारे लिए रौशनी पथ का निर्माण करेंगे। हमारी अग्रगामी सोच ही हमारे रास्ते रौशन करेंगे। भीतरी उजास बाहरी अंधकार को आसानी से हरा सकता है।…….प्रकाश के लिए आंतरिकता सदैव अनिवार्य है तभी हमारा जीवन रौशनी से भर पाएगा।”

यह पुस्तक नैतिक-आध्यात्मिक आधार पर आधुनिक सोच की पैरवी करती है, व्यावहारिक होना सिखाती है। अपने कर्त्तव्य का बोध निरन्तर कराती है। राष्ट्रप्रेम, हिंदी भाषा प्रेम और संस्कृति से प्रेम करना सिखाती है। प्रेम-पगे होने को पंडित होने की अनिवार्य शर्त बताती है। सब मिलाकर यह असल साहित्य की ओर उन्मुख करती है। अयन प्रकाशन दिल्ली द्वारा इस सजिल्द, आकर्षक और सुस्पष्ट पुस्तक का मूल्य रुपये 200/- रखा गया है। मेरा मानना है कि यह पुस्तक हर उम्र, हर वर्ग और हर पेशे से जुड़े लोगों के लिए उपयोगी है क्योंकि इसमें जीवन जीना सिखलाया गया है। अप्पो दीपो भवः के महत्व पर जोर दिया गया है। आंतरिक सुख और शांति आंतरिक साधनों से खोजने हेतु प्रेरित किया गया है। सहज शब्दों में सहज तरीके से प्रबुद्ध पाठकगण से जुड़ने के लिए “जीना इसी का नाम है” और लेखक श्री राजकुमार जैन राजन जी संयुक्त बधाई के पात्र हैं।

— डॉ अवधेश कुमार अवध

*डॉ. अवधेश कुमार अवध

नाम- डॉ अवधेश कुमार ‘अवध’ पिता- स्व0 शिव कुमार सिंह जन्मतिथि- 15/01/1974 पता- ग्राम व पोस्ट : मैढ़ी जिला- चन्दौली (उ. प्र.) सम्पर्क नं. 919862744237 Awadhesh.gvil@gmail.com शिक्षा- स्नातकोत्तर: हिन्दी, अर्थशास्त्र बी. टेक. सिविल इंजीनियरिंग, बी. एड. डिप्लोमा: पत्रकारिता, इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग व्यवसाय- इंजीनियरिंग (मेघालय) प्रभारी- नारासणी साहित्य अकादमी, मेघालय सदस्य-पूर्वोत्तर हिन्दी साहित्य अकादमी प्रकाशन विवरण- विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन नियमित काव्य स्तम्भ- मासिक पत्र ‘निष्ठा’ अभिरुचि- साहित्य पाठ व सृजन