इस कदर न चाहो
किसी को इस कदर न चाहो कि जान हो जाए
कहीं न वो पत्थर का मकान हो जाए ।।
यह सिक्कों की खनक चार दिन की ही है
ख़ाक हो जाओगे गर इसका गुमान हो जाए।।
अब इतना मत सताओ तुम बेजुबानों को
कि मुंह में उनके भी अब ज़ुबान हो जाए।।
इतनी ही कृपा करना मेरे प्रभु तुम मुझ पर
खुदा कभी न करे मुझे अभिमान हो जाए
तभी तलक यह इज्जत है तुम्हारी साहब
जब तलक ‘अरुण’ न बदजुबान हो जाए।।
— डॉ. अरुण निषाद