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विचार विमर्श- 10

इस शृंखला के इस भाग में कुछ विचार होंगे और उन पर हमारा विमर्श होगा. आप भी कामेंट्स में अपनी राय लिख सकते हैं-

1.क्या एक असफलता से सब कुछ समाप्त हो जाता है?

“असफलता, सफ़लता तक पहुँचने का पहला कदम है”.
इस दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा होगा, जो कि बिना किसी कठिनाइयों और असफलताओं के सफल हुआ हो| आप असफलता की सीढ़ी पर पांव रखकर ही सफलता की ओर आगे बढ़ते है. असफल होने पर सबसे पहले अपनी नाकामयाबी को स्वीकार करना आवश्यक होगा. ऐसा करने पर ही हम अधिक साहसी बनकर अपने सपनों का पीछा कर सकेंगे. सफलता जिंदगी में केवल उसी को मिलती है. जिसने साहस से संघर्ष किया हो. किसी की प्रेरणा भी सफलता की राह रोशन कर सकती है. स्कूल से मानसिक दिव्यांग घोषित कर थॉमस ऐल्वा एडिसन को स्कूल से निकाल दिया गया. मां की लगन और प्रेरणा का ही प्रभाव था, कि बल्ब को बनाने में थॉमस ऐल्वा एडीसन 10000 बार से भी ज्यादा बार असफल हुए फिर भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी और प्रकाश देने वाले बल्ब का आविष्कार किया, जिसने सबकी जिन्दगी में एक तरह से प्रकाश से भर दिया. बचपन में मंदबुद्धि वाला बालक अपने जीवन काल में 1093 आविष्कारों का जनक बने जो कि शायद एक विश्व रिकॉर्ड है. इतने अधिक आविष्कार इनके अलावा अब तक किसी ने नही किया है. एक असफलता से हार मानने पर ऐसा होना संभव ही नहीं था.
अंत में यह कहना तर्कसंगत होगा, कि एक असफलता से सब कुछ समाप्त नहीं हो जाता है. ”हमारी सबसे बड़ी कमजोरी हार मान लेना है. सफल होने के लिए एक निश्चित तरीका है एक और बार प्रयास करना.”

2.क्या कर्मवीर व्यक्ति ईश्वर के सबसे करीब होता है?

हम सब ईश्वर की संताह हैं. ईश्वर सबसे समान रूप से प्रेम करते हैं, लेकिन कर्मवीर व्यक्ति ईश्वर के सबसे करीब होता है, ठीक वैसे ही जैसे मात-पिता को आज्ञाकारी और सेवाभावी संतान सबसे अधिक प्रिय होती है. कहा भी जाता है, कि तुम एक कदम बढ़ाओ तो ईश्वर दस कदम बढ़ाएंगे. कदम बढ़ाना और कदम बढ़ाकर सफलता प्राप्त करना कर्मवीर का ही काम है. यह सफलता प्राप्ति ही ईश्वर का वरदान है और ईश्वर की करीबी का आभास भी कराती है. कर्मवीर व्यक्ति के लिए कोई बाधा अड़चन नहीं बन सकती. कर्मवीर के लिए ही कहा गया है-
”कर दिखाते हैं असंभव को वही संभव यहां,
उलझनें आकर उन्हें पड़ती हैं जितनी ही जहां.”

3.अकारण टकराव क्या उचित है?

सुख-दुख की तरह जीवन में जाने-अनजाने टकराव भी होता ही रहता हे. यह टकराव कभी किसी दूसरे के विचारों से भी होता है तो कभी परिस्थितिवश अपने विचारों से भी होता है. सबसे पहले तो हय कहना चाहेंगे कि टकराव होना ही नहीं चाहिए. अपने विचारों से टकराव से तो हम तनिक समझदारी से किनारा कर ही सकते हैं, लेकिम किसी दूसरे के विचारों से, नीति से टकराव से निपटना चुनौती वाली बात है. एक बार चुनौती समक्ष आने पर उसका डटकर नुकाबला करना तो ठीक है, लेकिन अकारण टकराव किसी भी परिस्थिति में उचित नहीं है. यह तो ”आ बैल मुझे मार—” वाली बात हो गई! इसलिए यथासंभव टकराव से किनारा करना ही उचित है, इसी में हमारा और सबका कल्याण है.

4.क्या अभ्यास के अभाव में शिक्षा विलुप्त हो जाती है?

न केवल शिक्षा में, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में अभ्यास की महत्ता निर्विवादित है. अभ्यास के लिए महान कविवर वृन्द ने कहा है-
”करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।।”
शिक्षा के संदर्भ में तो अभ्यास की महत्ता और भी बढ़ जाती है. जैसे कैंची को बहुत समय तक उपयोग में न लाया जाए तो उसकी धार कुंद पड़ जाती है, उसी प्रकार शिक्षा का अभ्यास न किया जाए तो उसकी धार विलुप्ति की ओर अग्रसर हो जाती है. अभ्यास की महत्ता प्रतिपादित करने के लिए मैं अपनी ही एक मिसाल देना चाहूंगी.
आज से लगभग 65 वर्ष पहले हम चार सखियों ने हारमोनियम की शिक्षा लेना शुरू किया था. हमारी बुजुर्ग प्रशिक्षिका का नाम श्रीमती सुखवर्षा था. उन्होंने हमें गुरबाणी के शबद बजाना सिखाया. वे एक महीने की फीस 10 रुपये लेती थीं. सीखना शुरू करते ही अपनी आदत के मुताबिक मैंने शिद्दत से सीखने के लिए पिताजी से कहके हारमोनियम भी खरीद लिया. प्रभु की कुछ ऐसी कृपा थी कि मुझे रोज़ एक शबद पक्का हो जाता था जब कि बाकी सबको एक-एक शबद में तीन-चार दिन लग जाते थे. घर में अभ्यास करने के कारण दस दिनों के अंदर मुझे गुरबाणी के अनेक शबद भी निकालने आ गए, साथ ही मैं भजन और फिल्मी गाने भी खुद ही निकालने लग गई. हमारी प्रशिक्षिका ने मुझे और सीखने की आवश्यकता न समझने के कारण मुझसे चार रुपये लेकर मुझे सिखाना ही छोड़ दिया, पर मेरा अभ्यास जारी रहा और रोज घर के कीर्तन में मैं हारमोनियम बजाने लग गई. समय मिलते ही शबद का अभ्यास जारी रहा. किसी बड़े गुरबाणी कार्यक्रम में शबद बजाने का अवसर मुझे 50 साल बाद मिला. कार्यक्रम के बाद सबका यह कहना था कि हमें तो आनंद आ गया. यह सब अभ्यास के कारण ही संभव हो सका था. पहले मैं अपनी इच्छुक सखियों को शबद सिखाती रही, फिर अपनी छात्राओं और सह अध्यापिकाओं को, फिर पड़ोसी महिलाओं को. आज भी जब कभी अवसर मिलता है, पोतों के कैसियो पर हाथ चलाती रहती हूं. अगर अभ्यास जारी न रखा होता, तो अभ्यास के अभाव में मेरी हारमोनिअयम शिक्षा विलुप्त हो गई होती. जीवन के हर क्षेत्र में अभ्यास की महत्ता निर्विवादित है.

मन-मंथन करते रहना अत्यंत आवश्यक है. कृपया अपने संक्षिप्त व संतुलित विचार संयमित भाषा में प्रकट करें.

हरि इच्छा ही कैवल्यं-
अत्यंत व्यस्तता के चलते हम काफी अंतराल तक नेट पर कम आ पाएंगे या नहीं आ पाएंगे. नेट से दूर रहें या पास, आप लोगों की याद आती रहेगी, सताती रहेगी. सबसे अहम है- हरि इच्छा. हरि इच्छा ही कैवल्यं.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “विचार विमर्श- 10

  • लीला तिवानी

    “अहंकार मिटा दे, ईश्वर मिल जाएगा. अहंकार छोड़े बिना सच्चा प्रेम नहीं किया जा सकता.”

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