कविता

दावत

जब नहीं मिला
किसी शादी का न्योता
मन खीज गया
कैसा आया यह करोना
लोग हैं मजबूर
मजबूरी में अपनी
बंधे हुए
कायदे नियमों से
किस को बुलाए
किस को छोड़े
हैं बड़े
असमंजस में
हम भी थे अफसोस में
नहीं मिला शादी का कोई न्योता
मिली नहीं कोई दावत
हमनें भी सोच लिया
नहीं बुलाया
तो क्या
बिन बुलाए ही पहुंच जाएंगे
किसी की शादी के समारोह में
बांध मुंह लगोट
एक दिन
पहुंच गए हम
एक विवाह स्थल पे
देखा वहां पूछ रहे थे मेहमानों से
बतलाए श्रीमन
आप हैं घराती
या फिर बाराती
मेरा जब नंबर आया
मैं बोला
न मैं घराती
न बाराती
मैं आया यह गिनने
कितने लोग आए हैं इस आयोजन में
नियमों को तो हुआ है पालन
सुनते ही मेरी बातों को
मुझे दिया गया एक आसान
भर पेट खिलाई दावत
जाते जाते थमा दिया
एक भारी सा लिफाफा
जिसमें पड़े हुए थे
पांच पांच सौ के
कुछ नोट
दावत पाई
दक्षिणा पाई
मैं खुशी खुशी घर पहुंचा
दावत खाने की
मेरी मुराद हो गई पूरी

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020