लघुकथा

तोड़ती बेड़ियाँ

धीमा स्वर कब उच्च हो गया दोनो को ही पता नहीं चला।कमरे के बाहर घर के सभी सदस्य जमा हो गए थे। नयी नवेली बहू बेटे से सवाल पर सवाल कर रही थी,
“हाँ, कोरोना से बचना चाहिये।शादी किये महीना पूरा हो गया।आप और हम कब तक सोशल डिस्टेंसिंग मनाएंगे?? हम कब तक एक दूसरे को स्पर्श नहीं कर सकते?? मुझे शक़ होने लगा है कि आप पुरुष हैं भी या नहीं???”
बेटा गरजता हुआ “अरे,अरे शरम लिहाज कुछ है भी या नहीं??”
बहू “जा रही हूँ धोखाधड़ी व मानसिक प्रताड़ना का केस करने। अब डॉक्टरी जाँच के प्रमाण के साथ ही गरजना।”
कहते हुए घर से निकली। मुक्ति की सांस ली और गुनगुना उठी, “मंजूर नहीं अब और शिखंडी, बन जा रे मन तू रणचंडी।”