कविता

दूरियाँ

हर दिल में हो या, ना भी हो
इक शायर जो,  जागेगा जब मिले तो  इक हमसफ़र
इन अखियों को , देख लो हल्की नज़र
लिखूँ, आशिक़ भारी पहली गज़ल।

मेरे घर में था, इक छोटा सा चिड़ियों का दल
इक उड़ गयी, जब खुला था पिंजर का सिर
हर मन का ताला खोल दे तो मन- ही- मननि
निकले मुसाफ़िर, करने में दिल का सफ़र।

दौड़ते जाते हैं, लम्हे – दर – लम्हे, जैसे कोई तितलियाँ
ना क़रीब अपने- अपने , कोई साथियाँ
भर दोगी तो रंगीन अल्फ़ासों से,  तुम चिट्टियाँ
तब मिट जाएँ तेरी- मेरी जैसे कोई दूरियाँ

— वत्सला

वत्सला सौम्या समरकोन

सहायक व्याख्याता, हिन्दी विभाग, कॅलणिय विश्वविद्यालय, श्री लंका। उद्घोषक, श्री लंका ब्रोडकास्टिंग कोपरेशन (रेडियो सिलोन)