कविता

माँ

माँ  आज है फिर डरी डरी सी
उन दरिंदों की बात मुझे है बताती
माँ  नींव बन जब हर बात है समझाती
छत टिकी  है घर की कैसे? तब समझ है आती!!
पापा के कंधे दीवारें हैं घर की बेटा
पापा की आंखें हैं घर की चौखट है बताती
वदी नेकी जो मर्जी वह करके आना तुम
सुकून की नींद तो माँ के आंचल में है आती!!
हलवा,पूरी,व सेवई स्वाद ही नहीं आएगा
मुझको तो माँ की सूखी रोटी है भाती
जब जब मैं निंद्रा में उठ बैठा
सिरहाने बैठ माँ  लोरी है सुनाती!!
माँ का जीवन ही वह आँगन  की तुलसी है
प्रातः माँ तुलसी के आगे है दीये  जलाती
घर की खुशियों की खातिर माँ
सुबह सवेरे तुलसी के है फेरे  लगाती!!
 लगी चोट मुझे जरा-सा
सौ जख्मों का दर्द खुद है सहती
डांट-फटकार मुझे गुस्से में सुनाती,फिर
 पलट कर आँसू  से है पल्लू छुपाती!!
माँ की संवेदना ममता है कितनी न्यारी
मुझको हर मौसम में माँ है भाती
बुरे वक्त में सब छोड़ जाते हैं ‘राज’
तो हर मोड़ पर माँ की दुआ ही काम आती!!
— राज कुमारी

राज कुमारी

गोड्डा, झारखण्ड