कविता

मृगतृष्णा

चलो चले उस पार
जहां मिलते हैं धरती और आकाश
मालूम है मुझको
यह एक मृगतृष्णा है
धरती और आकाश
न कहीं मिले हैं
न कभी मिलेंगे
हम सब बस
अपने अपने
सपनों में विचरते हैं
कभी हंस लेते
कभी रो लेते
हंसने रोने का
मनों को
बहलाने फुसलाने का
यह सिलसला
योही चला अा रहा है
और
योहीं चलता रहेगा
जब तक
हम और तुम
रहेंगे यहां.
*
ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020