भाषा-साहित्यलेख

वैश्वीकरण के दौर में हिंदी

आज हम वैश्वीकरण की दुनिया में हैं। वैश्वीकरण शब्द अँग्रेजी के ग्लोबलैजेशन शब्द का पर्याय शब्द है। यह दो शब्दों से बना है विश्व + एकीकरण इसका अर्थ है एक छत के नीचे आकर एक दूसरे की मदद करना। देश की अर्थ व्यवस्था को विश्व की अर्थ व्यवस्था के साथ जोड़ना ही वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया जो है वह बहुत प्राचीन काल की है, इसको हम हड़प्पा सभ्यता के साथ जोड़ते हैं। आधुनिक वैश्वीकरण 1990 के आस- पास से माना जाता है। इस आधुनीकीकरण में लोगों के बीच में न केवल व्यापार का होता है बल्कि अपनी भाषा, खान – पान, आचार- विचार, रहन – सहन आदि का आदान – प्रदान होता है। वैश्वीकरण के दौर में हिंदी की स्थिति पर हम विचार करेंगे।

हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा, राज भाषा एवं संपर्क भाषा है। सबसे पहले हम इन तीनों शब्दों के अर्थ को भली – भांति समझना आवश्यक है। राष्ट्रभाषा माने देशभाषा, देश में बोली जानेवाली भाषा है। वास्तव में भारत के सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ हैं। अधिकतर लोगों में बोली जानेवाली भाषा को राष्ट्रभाषा की दर्जा मिलनी चाहिए। लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं हो पाया है। यह विचारणीय विषय है कि संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ है। संसार के लगभग सभी देशों को अपनी एक उद्घोषित राष्ट्रभाषा है। देश का एक राष्ट्रभाषा होना यह उस देश की शान मानी जाती है। आज भारत में अधिकतर जनता इस बात पर जोर देते आ रहे हैं कि हिंदी को संविधान के द्वारा राष्ट्रभाषा की दर्जा दी जाए।
भारत में लगभग सत्रह सौ भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें 22 भाषाओं को ही भारतीय संविधान के द्वारा स्वीकृति मिली है। प्रशासनिक कार्यों में जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राजभाषा व अधिकार भाषा कहलाती है। भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 343 (1) के तहत हिंदी को 14 सितंबर, 1949 को राजभाषा के रूप में गौरवान्वित किया है। इसी के याद में हम हरवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाते हैं। हिंदी राजभाषा के विरोधी स्वर लगातार पचास सालों से हम सुनते आ रहे हैं। हिंदी के प्रति यह विरोधी स्वर क्यों भड़क रहा है? हिंदी ही राजभाषा क्यों? हम अपने आपसी इस विरोधी स्वर के साथ सामंजस्य स्थापित करना बहुत जरूरी है। तेलुगु की प्रसिद्ध कहावत है कि “ इंट गेलिचि रच्च गेलुवु ” अर्थात् घर जीतो ऊधम मचाओ । सबसे पहले हम अपने देश के अंदर एक सद्भाव बनाये रखें। हिंदी शब्द को हम हिंद शब्द से जोड़ते हैं, इसके साथ – साथ हिंदू धर्म से, सनातन धर्म से, संस्कृत भाषा से जोड़ते हैं। इसी संकुचित विचारधारा ने हिंदी के प्रति विरोधी भाव उत्पन्न होने में एक प्रबल कारण बना है क्योंकि भारत विभिन्नता का देश है। यहाँ अनेक धर्म, जाति, प्रांत, भाषा, संप्रदाय के लोग रहते हैं। सबके साथ समन्वय स्थापित करते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। समन्वयात्मक निर्णय ही हमारे देश में चल सकता है। जबर्दस्त के साथ किसी पर किसी तरह की बात व निर्णय थोपा नहीं जा सकता। इसलिए केंद्रीय स्तर पर दूसरी अधिकारी भाषा के रूप में अंग्रेजी को अमल में लाया जा रहा है।

भारतीय भाषा परिषद के अध्यक्ष, प्रख्यात रचनाकार, आलोचक ड़ॉ.शंभुनाथ जी कहते हैं कि हिंदी साहित्य का इतिहास हजारों सालों का है। हिंदी साहित्य को पढ़े बिना भारतीय विचारधारा को नहीं समझ सकते। हिंदी भाषा की शुरूआत को, उसकी जड़ों को समझना आवश्यक है। हिंदी को बनाये रखने में भारत के सभी भाषओं ने अपना – अपना कर डाला है। मैथिली, मागही, भोजपुरी, राजस्थानी उर्दू जैसी भाषाओं की भाव संपदा एवं शब्द भंडार के बल पर हिंदी खड़ी हुई है। मराठी और बंगला भाषाओं से यह अलग नहीं है। संस्कृत हिंदी भाषा की जननी नहीं है। हिंदी की जननी भोजपुरी है, छत्तीसगढ़ी है, राजस्थानी आदि हैं। हिंदी भारत की समग्रता का रूप है। संकुचित भावजाल से मुक्त होना जरूरी है, तभी यह भाषा सर्वमान्य बन जाती है।

संसार में लगभग तीन हजार पाँच सौ भाषाओं और बोलियों का प्रयोग होता है। इनमें चीनी, अंग्रेजी, हिंदी, जर्मनी, जापान, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, रूसी, अरबी, तेलुगु, तमिल, उर्दू, इतावली, बंगाली, मलया-बहसा, और स्पेनी ये सोलह भाषाएँ मौखिक तथा लिखित रूप में पाँच करोड़ से अधिक लोगों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि भारत की 5 भाषाएँ संसार की प्रमुख भाषाओं की सूची में स्थान प्राप्त कर चुकी हैं। आज भी यह संदिग्ध का विषय बना हुआ है कि संसार के अधिकतर लोगों में बोली जानेवाली भाषाओं में पहले स्थान पर कौनसी भाषा है?

सबसे पहले अमेरिका के वाषिंग्टन विश्वविद्यालय के आचार्य सिड्नी कुलबर्ट ने इस दिशा में विचार किया था। उन्होंने अपने शोध के माध्यम से यह निष्कर्ष निकाला कि विश्व की प्रमुख भाषाओं में सबसे पहले स्थान पर चीनी दूसरे स्थान पर अंग्रेजी और उसके बाद हिंदी तीसरे स्थान पर था। यह शोध सन् 1970 का है। इसी धारणा को हम मानते आ रहे हैं। हिंदी आज न केवल भारत की बल्कि विश्व की संपर्क भाषा है। पचास साल के इस लम्बे अंतराल में हिंदी तेज गति से बढ़ गयी है। इसका प्रबल कारण वैश्वीकरण है। वैश्वीकरण की मूल संकल्पना व्यापार है, विदेशी निवेश द्वारा आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पर अधिग्रहण तथा आपसी समन्वय है। आदान-प्रदान के इस प्रक्रिया में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वैश्वीकरण की वजह से हिंदी की नयी भूमिका सामने आयी है। हिंदी की ताकत उसके मिश्र स्वभाव में है। भारतीय महाद्वीप में बोली – समझी और देशी भाषाओं तथा बोलियों के शब्दों को अपनाकर देश – दुनिया के सुदूर क्षेत्रों में जानी पहचानी है। हिंदी का यह सरल स्वभाव ही उसे व्यापक बना दिया है। वैश्वीकरण के इस दौर में भारतीय बाजार की ताकत जैसी – जैसी बढ़ रही है वैसी – वैसी भारतीय भाषाओं एवं हिंदी की भूमिका व्यापक हो रही है।

वैश्वीकरण के दौर में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी भाषा का विस्तार भारतीय सीमा को कभी लाँग हो चुकी है। त्रिनिदाद, सूरीनामा, फिज़ी आदि देशों में हिंदी वैकल्पिक राजभाषा है। भारत के पड़ोसी देश नेपाल, बंग्लादेश, पाकिस्तान, बर्मा, श्रीलंका, म्यांमार आदि देशों में हिंदी जाननेवालों की संख्या ज्यादा है। नेपाल में 70 प्रतिशत से ऊपर हैं। इसके अतिरिक्त इंडोनेशिया मारिसस, दक्षिण पूर्वी आफ्रिका, ब्रिटीश गयाना, कांबोड़िया, सौदी अरेबिया, कुवैत, ईरान आदि देशों में भी हिंदी जाननेवालों की संख्या अधिक दिखाई देती है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार संसार के लगभग 137 देशों में हिंदी भाषी विद्यमान हैं। कई विदेशी विश्व विद्यालयों में हिंदी पढ़ायी जा रही है और शोध कार्य भी संपन्न कराया जा रहा है। हिंदी भाषा के विकास के संदर्भ में जोगेंद्र सिंह ने लिखा है कि “ हिंदी का प्रचार-प्रसार अप्रत्याशित नहीं है। इसका श्रेय प्रवासी भारतीयों को जाता है। जिन्होंने हिंदी भाषा का संरक्षण और गौरव प्रदान किया है। ” प्रवासी भारतीयों के साथ सभी तीर्थ योगियों और पर्यटकों के माध्यम से भी हिंदी प्रचलित हुई है। धर्म प्रचारकों, योगियों ने भी इसका विस्तार किया है। व्यवसायियों, व्यापारियों ने भी हिंदी की खूब सेवा की है। उन्होंने व्यापार तथा व्यवसाय के क्षेत्र में विचार विनिमय का माध्यम हिंदी को ही बनाया है। आर्य समाज़, सनातन धर्म, अन्य धार्मिक संघटनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रो. य़शवंतकर संतोषकुमार लक्ष्मण का विचार है कि “वैश्वीकरण के दौर में हिंदी भाषा को यह लाभ हुआ है कि हिंदी भाषा को रोजगार परक भाषा बनाया जा रहा है क्योंकि आज उसी भाषा और साहित्य को लोग पढ़ रहे हैं, जिसमें रोजगार की संभावना हो। यही कारण है कि हिंदी का पाठ्यक्रम साहित्य की अपेक्षा प्रयोजनमूलक एवं व्यवसायाभिमुख हो रहा है। ”
हिंदी को विश्व व्यापी बनाने में मीड़िया एवं पत्रकारिता का भी महत्वपूर्ण भूमिका है। डॉ. देविका जौहरी लिखती हैं कि “ वस्तुत: मीड़िया, पत्रकारिता, चित्रपट की रचना धर्मी पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यह साहित्य, कला और जीवन की त्रिवेणी है। अत: जन संचार को जन-जन तक पहुँचाने के लिए हिंदी भाषा और साहित्य से हो सकता है। ” हिंदी साहित्य का इतिहास एक हजार वर्ष पुराना है। भारत की राजभाषा बनने में एवं वैश्विक स्तर पर अग्रसर होने में साहित्य ही इसकी प्रबल क्षमता है। इसके साहित्य से समाज़ को एक दिशा मिलती रही है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के पूर्व निदेशक, अंतर राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त रचनाकार, कवि डॉ.जयप्रकाश कर्दम जी कहते हैं कि “ हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि आज हिंदी विश्व में बोले जानेवाली भाषा में नम्बर एक भाषा है या नम्बर दो भाषा है। लेकिन इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि हमारी भाषा का भविष्य उज्वल हो जाएगा, भाषा आगे बढ़ती है लिखने से, और पढ़ने से । ”

विचारणीय विषय यह है कि आज की नयी पीढ़ि हिंदी की ओर आकर्षित नहीं हो रही है क्योंकि चिकित्सा, अभियांत्रिकी, सूचना प्रौद्योगिकी सहित कई विषयों की पाठ्य सामग्री हिंदी में उपलब्ध नहीं है। लोगों में यह संशय है कि हिंदी में रोजगार मिलेगा नहीं। शोध कार्यों में, उसकी गुणवत्ता में भी अन्य देशों की तुलना में हम बहुत पीछे पड़ गये हैं। भारतीय जीवन के बारे में, संस्कृति के बारे में, भारतीय विचारधारा को भली – भाँति समझने की दिशा में भी अमेरिका, रूस जैसे देश आगे हैं। दूसरी बात यह है कि अंग्रेजी के साथ हमारा ज्यादा लगाव है। अंग्रेजी भाषा के मोहजाल में फँसकर हम अपनी असलियत को खो बैठा है।

अमित कुमार जी अपने आलेख में लिखते हैं कि “ अभी हाल ही में गूगल ने ऐलान किया है कि हम एक लाख हिंदी व तकनीकी प्रशिक्षु लोगों को भर्ती करना चाहते हैं। बड़ी कंपनियों को अच्छे जानकार लोग नहीं मिल रहे हैं।” विदेशी लोग हिंदी के प्रति ज्यादा लगाव दिखा रहे हैं कि इससे बाजारवाद की दुनिया में लाभ उठा सकें।

हम जानते हैं कि हमारा भारत विश्वगुरू है। संसार को हम शिक्षा देते थे। विदेशी लोग यहाँ पढ़ने आते थे। नालंदा, सारनाथ, तक्षशिला, नागार्जुनकोंड़ा प्राचीन काल के ये विद्याकेंद्र इसके इतिहास के दस्तावेज़ हैं। हिंदी एक चेतना संपन्न भाषा है। इसे रोजगार परक बनने की जरूरत है। ज्ञान – विज्ञान की भाषा बनाने में कदम लेनी चाहिए। हिंदी प्रेमी होने के नाते हिंदी भाषा को आगे बढ़ाने में हमारे ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। हिंदी में बोलने – समझने, पढ़ने के साथ – साथ लिखनें में भी सक्षम बनें। हिंदी भाषा की उन्नति में हाथ बाँटे। आज के वैश्विक दौर में जितनी भाषाएँ हो सकें उतनी भाषाएँ सीख सकें। सभी भाषाओं के साथ सद्भाव बनाये रखें। हम अपनी मातृभाषा को नहीं भूलें। हिंदी के प्रति लगाव कभी नहीं तोड़ें। अन्य भारतीय भाषाओं के साथ विदेशी भाषओं का ज्ञान अर्जित करते हुए देश की उन्नति में, मानवीय मूल्यों को गढ़ने में हम अपनी शक्ति को जोड़ें। विश्व कल्याण की भावना में सीखते – सिखाते हुए सुखमय जीवन को पाएँ।

शोधार्थी,
हिंदी विभाग,
श्री.वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय,
व तिरूपति, आँध्रप्रदेश ।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।