कविता

मेरी पूजा मेरी मां

चूल्हे पर  जलती  हांडी सी,
पल  पल  जलती  मेरी  मां।
भीतर भीतर बल्के फिर भी,
कभी  न   छलके   मेरी मां।
अपनी पायलकी रूनझुन से,
सुबह   जगाती  सबको मां।
अवसादों   के   घोर  अंधेरे,
अंतर्मन   में    छुपाती   मां।
संघर्षों की कठिन डगर पर,
दिनकर बनकर  चलती मां।
भीतर भीतर बल्के फिर भी,
कभी  न  छलके   मेरी  मां।
बनी  प्रेरणा  हम बच्चों की,
पाना  लक्ष्य   सिखाती  मां।
कैसे  बढ़े  किधर  को जाएं,
उजियारा   दिखलाती   मां।
आशाओं   की   नैया  डोले,
बन   पतवार   संभाले   मां।
भीतर भीतर बल्के फिर भी,
कभी  न  छलके   मेरी  मां।
बनकर चांद गगन में चमकूं,
हर्षित   होकर    डोले   मां।
नाम करूं मैं  रोशन  जग में,
सपन   संजोए    मेरी    मां।
मैं अपनी  मां  की  हूं  पूंजी,
मेरी     पूंजी     मेरी      मां।
भीतर भीतर बल्के फिर भी,
कभी  न  छलके   मेरी  मां।

— सीमा मिश्रा

सीमा मिश्रा

वरिष्ठ गीतकार कवयित्री व शिक्षिका,स्वतंत्र लेखिका व स्तंभकार, उ0प्रा0वि0-काजीखेड़ा,खजुहा,फतेहपुर उत्तर प्रदेश मै आपके लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका से जुड़कर अपने लेखन को सही दिशा चाहती हूँ। विद्यालय अवधि के बाद गीत,कविता, कहानी, गजल आदि रचनाओं पर कलम चलाती हूँ।