कविता

कुछ पता ही नहीं चला

कैसे गुजरे ये वक्त कुछ पता ही नहीं चला,
बचपन से जवानी और फिर बुढापे में जीवन ढला।
बचपन में हांफते थे फिर भी मजे से साईकिल चलाते थे,
फिर कब चार चक्कों मे लगे घुमने पता ही नहीं चला।
था अपना शहर पेड़ो की हरियाली से भरा पूरा,
कब ये कंक्रीट में बदल गया कुछ पता ही नहीं चला।
कभी अपने माँ बाप की थे हम ज़िम्मेदारी,
अब हो गये अपने बच्चों के जिम्मेदार कुछ पता ही नहीं चला।
वो भी क्या वक्त था जब बेखबर होकर सोया करते थे,
पर कब रातों की नींद आंखों से उड़ गई कुछ पता ही नहीं चला।
ये सोचकर नहीं कटता था वक्त कि हम भी बनेंगे माँ बाप,
कब अपने बच्चे भी हो गये बच्चों वाले कुछ पता ही नहीं चला।
कभी अपने काले घुंघराले बालों पे करते थे गुरूर,
कब ये हो गये सफेद कुछ पता ही नहीं चला।
कभी नौकरी पाने के लिए कर रहे थे संघर्ष,
पर कब हो गये हम रिटायर कुछ पता ही नहीं चला।
कभी संयुक्त परिवार में रहते थे सीना चौड़ा करके,
पर ये कब ले लिया एकल परिवार का रूप कुछ पता ही नहीं चला।

— मृदुल शरण