हास्य व्यंग्य

महिमा जूती की… (व्यंग्य)

यद्यपि इंसान स्वयं सदियों से जूतियाँ पैरों में और सिर पर पगड़ी पहनता आया है और दोनों का स्थान भी दो अलग-अलग छोरों पर रहा किन्तु पगड़ी व जूती का संघर्ष संसार में अनवरत चलता रहा कभी रुका नहीं । जब भी मौका मिलता ये दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने में कसर नहीं छोड़ती । वैसे जिनकी जूतियाँ मजबूत व चमकदार जब-जब रहीं उनका फिर पगड़ी कुछ भी ना बिगाड़ पाई ऐसा हर समय देखा गया है ।

     अजीब संयोग होता होगा जब कभी-कभी जूतियाँ पैर की बजाय सिर पर रखनी पड़ जाती है और पगड़ी सिर की जगह पैरों में आ जाती है । कई लोगों के चाहे कपड़े फटे-पुराने हों पर वे जूतियाँ ठीक-ठाक पहनते हैं । उनका मानना है कि लिवास इतना महत्व नहीं रखते व्यक्तित्व के लिए, जितनी पैरों की मजबूत जूतियाँ । जबसे जूतियों ने सिर पर छलांग लगाना शुरू किया है तब से लोगों की पगड़ियां डर के मारे छूमंतर सी हो गयी हैं तब ही तो आजकल सिर खाली खाली से दिखाई  देते हैं ।
पहले जूतियाँ पैरों के साथ-साथ चलती थी और इंसान को उसके गंतव्य तक पहुँचाती थी वैसे समय के साथ   जूतियों ने परंपरागत ढर्रे के साथ-साथ कुछ नये तरीके भी ईजाद कर लिए हैं आजकल वो संसद, विधानसभा और छोटी-बड़ी सभाओं में भी बड़ी सादगी से चल लेती हैं और छलांग भी लगा लेती हैं ।
आजकल ऐसा देखना आम बात सी हो गई जो पगड़ी कभी दादागिरी करती थी अब जूतियों के आगे गिड़गिड़ाती नजर आती है ।
जब सम्मान समारोह में किसी को पगड़ी या साफा पहनाया जाता है तब पहनने वाला उसके एक छोर को जमीन से छूता है तब पहनता है, इसका मतलब समझ गये होंगे ही कि पगड़ी, जूतियों से आज्ञा लेकर ही सिर पर बैठती हैं । इस विभिन्नताओं के युग में चाहे पगड़ी का कुनवा बढ़ा हो या नहीं , पर जूतियों ने अपना वंश बखूबी बढ़ा लिया है चप्पल, जूते, सैण्डल, ऊँची ऐडी के व सिलिपर (तरह-तरह के) आदि । अगर इस जमाने को जूतियों का जमाना कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । पहले जूती-चप्पलें घर के दरवाजे तक ही रहती थी अब वो घर के अंदर ही नहीं रसोई में भी प्रवेश कर चुकी है । एक इंसान अब अपने पास कई तरह की जूतियाँ, चप्पलें व जूते रखने लगा है पता नहीं, कब किससे काम पड़ जाये । जैसे- शौचालय की चप्पलें, घर अंदर के सिलिपर, घूमने के जूते व समारोह आदि में जाने के रोवदार पदवेश आदि । यहाँ तक कि पड़ौस से संघर्ष के समय के लिए टूटे हुए जूते भी आज का इंसान सहेज कर रखने लगा है ।
  वैसे आजकल जूतियों के दिन भी कुछ-कुछ लद से गये हैं उनका स्थान जूते व सैण्डिलों ने ले लिया है पर वे सब हैं तो उसके ही वंश के ही इसलिए जूतियों को वे सब बिल्कुल भी नागवार नहीं लगते ।
हाँ, जूतियों ने पहले की तरह चर्र चूं-चर्र चूं की आवाज निकालना छोड़ दिया है अब वो जहाँ भी जाती है गुप-चुप जाती है और काम होने के बाद ही पता चलता है कि ये किसी जूते या जूती का ही कमाल है अन्यथा ये काम इतना आसान नहीं था जो इतनी सरलता से हो जाता । पहले जूतियाँ तेल पीकर नरम रहती थी पर आजकल के जूतें मालिक की जेब और दूसरे के सुख-चैन पीकर नरम रहते हैं । अब स्वयं इंसान पर निर्भर करता है कि वो जूती या जूतों का उपयोग किस प्रकार लेता है ।
— व्यग्र पाण्डे

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,स.मा. (राज.)322201