कविता

मन के  मीत

आज   मेरा  मन  व्यथित हुआ,
कुछ   अच्छा  कुछ  बुरा   लगा,
कम्पित   हुई   हृदय  की  लहरे,
लगा   मुझे  क्यों   कुछ  तो  है।
दूषित  नहीं  किसी के प्रति मन,
फिर भी कालिख सी दिखती है,
सोचू   अच्छा   कहू   बुरा  क्यों,
मन   की   चंचलता   झरती  है,
देखू    आर    पार   ज़ब इसके,
लगे   मुझे   क्यों   कुछ   तो  है,
ऐसा  नहीं   प्रथम  यह  अवसर,
अगणित  बार लगा मुझको यह,
मंद    गति   तिनके   सी  बोली,
करे   प्रहार  हृदय  पट  पर जब,
झरती   नईया    दो   नयनों की,
भरती    है    गागर    मे  सागर,
खोल  हृदय  पट  चुपके से तब,
अन्तः   मन    से    झाके  कोई,
लगा   मुझे   क्यों   कुछ  तो है।
मन   की  लगी   शीत  अग्नि मे,
कीट  –  पतंगे   जब   जलते  हैं,
पूछूं   मन    से   सुनू   नहीं  पर,
वाक  द्वन्द   के   लुप्त  कुंड  मे,
जब भस्मिभूत हो स्वप्न -सुनहरे,
लगा   मुझे   क्यों   कुछ तो  है।
समतल  नहीं  मार्ग  जीवन  का,
ज्ञात   सदैव  रहा   मुझको  यह,
तब  ठोकर  से  पीड़ित  हो कर,
पीड़ा  की  क्यों  आह   तीव्र  है?
दृश्य  दिखाई   नहीं  दिया  क्यों,
सोचे    बार  – बार   मन    मेरा।
दूर   दृष्टि   के   पर्दे    पर   जब,
भ्रमित  हुई   जीवन  की  छाया।
लगा   मुझे   क्यों   कुछ   तो  है,
प्रेम – पथिक   मेरे    जीवन   के,
नहीं   बनो    तुम   इतने   निष्ठुर,
मन  के  मीत, जीवन  के  साथी,
चलो साथ इस कठिन  डगर पर,
आखिर   हम  है    दीया – बाती,
मैल   मिटे    सब   राहगीरों   के,
छिटे   चांदनी   दिप्त – चन्द्र  की,
लगे  मुझे  इस   उजले  पथ  पर,
नहीं, यहाँ   कुछ  भी  तो नहीं है।

— महिमा तिवारी

महिमा तिवारी

नवोदित गीतकार कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार, प्रा0वि0- पोखर भिंडा नवीन, वि0ख0-रामपुर कारखाना, देवरिया,उ0प्र0