कविता

कठपुतलियां हम

हम इंसान हैं
ये हम जानते हैं
पर मानते नहीं हैं,
हम तो अपने कृतिकार को भी
आँखें दिखाते हैं।
हम ये भूल जाते हैं
कि हम सब मात्र
कठपुतलियां मात्र हैं,
हमारी बागडोर किसी
और के हाथ है।
हम सब जानते हैं फिर भी
शान बघारते हैं,
ये हमने किया
वो हमने किया,
ये हम कर सकते हैं
ये हम करते हैं,
हमारे……. से
चिराग जलते हैं।
मेरे नाम की दहशत है,
बिना मेरी इच्छा के
पत्ता नहीं खड़कता है
मेरे नाम का डंका बजता है।
पर हम तब असहाय हो जाते हैं,
जब हमारे रिंग मास्टर
आँखें तरेर देते हैं,
अपनी सारी अकड़
पल में खो देते हैं।
तब शायद हम महसूस करते हैं
हम तो हाँड़-माँस के
चलते फिरते सिर्फ़ पुतले हैं,
बिना उस सत्ता की इच्छा के
एक साँस तक
नहीं ले सकते हैं।
@सुधीर श्रीवास्तव

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921