धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

विचार विमर्श- 14

इस शृंखला के इस भाग में कुछ विचार होंगे और उन पर हमारा विमर्श होगा. आप भी कामेंट्स में अपनी राय लिख सकते हैं-
1.क्या जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है?

समय के साथ जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है. पहले रोटी-कपड़ा-मकान जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा में आता था, संयुक्त परिवार का चलन होता था, और कम जरूरतों में प्रेम से निर्वाह होता था. आज एकाकी या नाभिकीय परिवार का बोलबाला है. यहां भी सबका हित नहीं अपना स्वार्थ प्रमुख होता जा रहा है. डिजिटल युग में देश-दुनिया से जुड़े रहने की मंशा से अब सबसे पहले हर सदस्य को मोबाइल की आवश्यकता महसूस की जा रही है. महंगाई के कारण भी जीवन की बुनियादी जरूरतों की परिभाषा बदलती जा रही है. एक समय ऐसा था जब परिवार का मुखिया कहता था- ”तेते पांव पसारिए, जेती लांबी सौर. अपने से नीचे वालों को देखो.” आज इससे उलट होता जा रहा है. अपने से ऊपर वालों को देखने के कारण तनाव-ईर्ष्या-लोभ-लूट खसोट आदि बढ़ते जा रहे हैं. वर्तमान में बुनियादी जरूरतों मे विस्तार अवश्य है, जो रहने के स्तर पर निर्भर करता है. बाकी कुछ जीवन का नियंत्रण भी कार्य करता है.

2.इंसान अपनी परछाईं से क्यों डरता है?

इंसान की परछाईं सिर्फ उसके शरीर की परछाईं ही नहीं होती, उसके विचारों की परछाईं भी होती है. अगर उसके विचार नकारात्मक होंगे, तो उसमें डर की भावना प्रबल होने से वह अपनी परछाईं से भी डरता है. अगर उसके विचार सकारात्मक होंगे, तो उसमें डर की भावना प्रबल न होने से वह अपनी परछाईं से कतई नहीं डरेगा. उसमें हिम्मत का संचार होता है. ऐसे में प्रकाश के अनुरूप हिलती-डुलती, आगे-पीछे जाती हुई उसकी अपनी परछाईं उसे कतई नहीं डरा सकती. ख्यालातों के बदलने से भी नया दिन निकलता है, सिर्फ़ सूरज के चमकने से ही सवेरा नहीं होता.

3.क्या वक्त बीतने के बाद अक्सर अपनी गलती का अहसास होता है?

यह सही है, कि वक्त बीतने के बाद अक्सर अपनी गलती का अहसास होता है. अगर पहली ही पता चल जाए कि हम जो काम कर रहे हैं, जो बोल रहे हैं, जहां जा रहे हैं, वह गलत है तो हमसे गलती होगी ही नहीं. फिर गलती का अहसास भी नहीं होगा. इसलिए यह कहना सही है, कि वक्त बीतने के बाद अक्सर अपनी गलती का अहसास होता है.

4.क्या समय सारे घाव भर सकता है?
नि:सन्देह। छोटे मोटे घाव तो भरे जाते है। परन्तु बड़े घाव को भरने में अधिक समय लगता है, चोट गहरी जो है। ये घाव निशाना या दाग पीछे छोड़ जाते हैं। मनुष्य के हृदय के गम्भीर घाव को मिटाना अत्यन्त कठिन है। समय सब कुछ बदल देगा पर हृदय में जो एक अव्यक्त चिन्तन, आन्दोलन व उथल-पुथल उस चोट को बारंबार स्मरण दिलाती है, जब तक उनके समाधान नहीं होता चिंतन चलता रहता है। प्रतिहिंसक प्रवृत्ति मानव जीवन की ही एक प्राकृतिक व स्वाभाविक गुण है । इसका एक ही महत्त्वपूर्ण समाधान है- उचित समय के लिए प्रतीक्षा करना। कहते हैं समय का इंतज़ार करो, सब्र में मीठा फल मिलेगा। यह कथन सत्य भले ही हो, पर प्रतीक्षा का समय बहुत लंबा लगता है। फिर भी यही सही है, कि समय सारे घाव भर सकता है।

मन-मंथन करते रहना अत्यंत आवश्यक है. कृपया अपने संक्षिप्त व संतुलित विचार संयमित भाषा में प्रकट करें.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “विचार विमर्श- 14

  • लीला तिवानी

    बेटी ईश्वर का दिया हुआ एक महत्वपूर्ण तोहफा होता है जो कि किस्मत वालों को ही मिलता है एवं बेटियां घर की लक्ष्मी होती है। हमारे समाज के लोगों की मानसिकता को बदलना बहुत जरूरी है क्योंकि कुछ लोग बेटों की चाह में बेटियों की हत्या कर देते है। लेकिन उन्हें इस बात का आभास नही है कि अगर समाज मे बेटियां ही नही रहेगी तो बेटे कहाँ से लायेंगे, पत्नियां कहाँ से लायेंगे, उनकी पीढ़ी आगे कैसे बढ़ेगी?

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