कविता

हां मैं तुझ से छली गई हूं

युगों युगों तक करी प्रतीक्षा,
लिया जनम भी बारंबार
कभी द्रौपदी, कभी मंदोदरी,
मीरा और तारा भी बनी
कभी अनुसुइया अवतार।
जितने भी मैंने रूप धरे हों
जाने कितने ही त्याग किए हों
निजी स्वार्थ के कारण तेरे
तौली गई कमानी पर भी
दिया नहीं कोई मोल मेरा
अधिकारों से छिनी गई हूं,
हां मैं तुझ से छली गई हूं,
संबंधों में ठगी गई हूं।

पा जाए तू अपना गौरव,
मिले तुझे तेरा आडंबर।
क्षुद्र सोच महिमामंडित हो,
जय का वरण करे पराजय।
राज -क्रीड़ा की बिसात पर,
पासे जैसी चली गई हूं।
हां मैं तुझ से छली गई हूं,
संबंधों में ठगी गई हूं।

लेना था प्रतिशोध तुम्हें।
निज आन, बान और शान का,
हता प्रिय प्राण भर्ता को।
हरण किया अभिमान का,
संगत सदा राजद्रोही की।
सर्वनाश राज सम्मान का,
प्रिय को छीन, स्व प्रिय को दीना।
मुझको मुझसे च्युत कर दीना,
बलिवेदी के चरण चलकर,
समिधा से समाधि हुई हूं।
हां मैं तुझ से छली गई हूं,
संबंधों में ठगी गई हूं।

मैं थी केवल एक पुजारिन,
नहीं लोभ नहीं मोह कोई था।
ना कुछ पाने की इच्छा थी,
ना कुछ खोने का ही डर था।
स्वयं के दुर्विचार स्वपनो से,
था भयभीत राज मतवाला।
दिया श्रृंगार सर्प मालों का,
और पिलाया विष का प्याला।
लाज भक्ति की रखी प्रभु ने,
सुधामयी ही बनी रही हूं।
हां मैं तुझसे छली गई हूं,
संबंधों में ठगी गई हूं।

अमर हो गुरुता स्वसंकल्प की,
कुल का मान कुलंश निभाए।
निर्विरोध तुम्हें पूर्ण बनाने,
अपूर्णता की राह चली हूं।
मान छिन गया माननि का,
हाट चौक नीलाम हुई हूं,
बने अमोल श्रेष्ठता तेरी।
मैं कौड़ी के भाव बिकी हूं,
हां मैं तुझ से छली गई हूं।
संबंधों में ठगी गई हूं,

मनु तो मनु था, देवपुरुष भी,
आहत था मेरी चर्चा से।
खंडित ना हो अंतः परिचर्चा,
कर लक्ष्य भुवनकी कुटियाका।
पर स्त्री परम परीक्षा दे,
भिक्षुक बन ये संकल्प लिया।
दिया नग्न मातृ स्पर्श तुम्हें,
तब तुमने अमृत पान किया।
जब नतमस्तक किया तुम्हें,
तब मैं शीर्ष पे खड़ी हुई हूं।
हां मैं तुझसे छली गई हूं,
संबंधों में ठगी गई हूं।

करूं कहां तक गणना अपने,
त्याग और परित्याग की।
क्योंकर बनी रही सहनशील,
तेरे हर अभिशाप की।
यदि बन जाती तेरा विरोध,
तू स्वयं हो जाता निर्विरोध।
पश्चाताप की इस अग्नि में,
मैं युगो युगो से धधक रही हूं।
हां मैं तुझ से छली गई हूं,
संबंधों में ठगी गई हूं।

— महिमा तिवारी

महिमा तिवारी

नवोदित गीतकार कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार, प्रा0वि0- पोखर भिंडा नवीन, वि0ख0-रामपुर कारखाना, देवरिया,उ0प्र0

One thought on “हां मैं तुझ से छली गई हूं

  • स्वयं के दुर्विचार स्वपनो से,
    था भयभीत राज मतवाला।
    दिया श्रृंगार सर्प मालों का,
    और पिलाया विष का प्याला।
    लाज भक्ति की रखी प्रभु ने,
    सुधामयी ही बनी रही हूं।

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    करूं कहां तक गणना अपने,
    त्याग और परित्याग की।
    क्योंकर बनी रही सहनशील,
    महिमा जी नारी को अपने त्याग और परित्याग और महानता की चर्चा स्वयं करने की आवश्यकता नहीं है। संपूर्ण मानवता उसका लोहा मानती है। नारी को सदैव आदर व सम्मान दिया जाता रहा है और दिया जाता रहेगा। कुछ आपराधिक घटनायें होती हैं, समाज में कुछ कुप्रथाएं और गलत परंपरायें पनपने के कारण समय-समय पर नारी को झेलना भी पड़ा है किन्तु समाज ने उन्हें कभी आदर्श नहीं माना है। नारी को नर के योगदान और नर को नारी के योगदान को स्वीकार करने और एक दूसरे का सम्मान करके ही दोनों आनन्दित र सकते है। दोनों मिलकर ही पूर्णता प्राप्त करते हैं।

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