मुक्तक/दोहा

होली के दोहे

रंगों के सँग खेलती,एक नवल- सी आस !
मन में पलने लग गया,फिर नेहिल विश्वास !!

लगे गुलाबी ठंड पर,आतपमय जज़्बात !
प्रिये-मिलन के काल में,यादें सारी रात !!

कुंजन,क्यारिन खेलता,मोहक रूप बसंत !
अनुरागी की बात क्या,तोड़ रहे तप संत !!

बौराया -सा लग रहा,देखो तो मधुमास !
प्रीति-प्रणय के भाव का,है हर दिल में वास !!

अपनापन है पल्लवित,पुष्पित है अनुराग !
सभी ओर ही श्रव्य हैं,अंतर्मन के राग !!

भली लगे शीतल हवा,मौसम के प्रतिमान !
अधरों पर पलने लगा,ढाई आखर गान !!

करते मंगलकामना,आकर रंग-अबीर !
वे भी चंचल हो गये,जो थे नित गम्भीर !!

कायम रह पाये नहीं,अनुशासन के बंध !
अभिसारों ने रच दिये,नये-नये अनुबंध !!

फागुन की अठखेलियां,नयनों की है मार !
बदला-बदला लग रहा,देखो यह संसार !!

कदम-कदम से मिल रहे,हाथ गह रहे हाथ !
पर्वों को तो मिल रहा,धर्म,नीति का साथ !!

                — प्रो.शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल-khare.sharadnarayan@gmail.com