कविता

हे कविता !

अब तुम ही बताओ
कैसे  करूँ परिभाषित
तुमको !
तुम कभी
लय बध्द हो
एक नृत्यांगना की तरह
तो कभी
मुक्त छंद सी
चंचल नदी की मानिंद
तो कभी
ग़ज़ल की बहरों में बंधी
अरकान और मीटर के
तिलस्म में फंसी
कोई स्त्री
जो
लुभावने प्रोलोभनों
की ओर
हो जाती है आसक्त
कभी हाइकु सा सूक्ष्म रूप लिए तुम
कह जाती हो इतना कुछ
मानो गागर में सागर
कभी दोहे का श्रृंगार कर
तेरह ग्यारह तेरह ग्यारह
में पग पग धरते हुए
मनभावन चाल से चलती हुई तुम
कर जाती हो
हरेक दिल में  घर
और कभी तो
ना जाने कितनी तरह के
लोक छंदों में ढल कर
दिखाती हो  रूप नए-नए
कि तुम्हें रचने वाला खुद
हो जाता है हतप्रभ
जैसे ईश्वर अचंभित है
स्त्री को रच कर
अब तुम ही बताओ
हे कविता !
कैसे परिभाषित करूँ
तुमको
बांध कर तुम्हें
किसी सीमित सी परिभाषा में
नहीं चाहती तुम्हारे विविध स्वरूप को मापना
जैसे बहुत मुश्किल है
स्त्री को परिभाषित करना
जो जनती है सृष्टि को
और तुम जनती हो
असंख्य भावों को
इसलिए
तुम्हें सिर्फ महसूस किया  जा सकता है
परिभाषित कदापि नहीं
— नमिता राकेश