कविता

बिखर रहे परिवार

मेरा, मैं और मेरी में बिखर रहे परिवार
अब परिवार में पहले जैसे ना रहा प्यार
स्त्रियों से न निभती घर में
छोटी–छोटी शंकाओं पर बढ़ जाती है तकरार।
बाप–भाई अब शब्द रह गये
मिलता नहीं घर में उनको सत्कार
अहं, द्वेष, ईर्ष्या, और क्रोध विरोध हैं संस्कारों में
कूट- कूटकर लोगों के दिलों में भरा है अहंकार
प्रेम, मिलन भाईचारा अब लुप्त हो गया
नफरत की आग लेकर दिलों में बैठे हैं भरमार ।
अब अपने तक सीमित रह गये
भूल रहे अपनी मर्यादा और संस्कार
मुझे अब समझाओ प्रभु आगे का हाल क्या होगा ?
अपनी–अपनी वासनाओं से बिखर जायेगा परिवार।
-– कल्पना गौतम

कल्पना गौतम

उत्तर प्रदेश की निवासी हैं। हिन्दी में पीएचडी कर रही हैं।